भक्तिम्—भक्ति; हरौ—हरि में; भगवति—भगवान्; प्रवहन्—निरन्तर लगे रह कर; अजस्रम्—सदैव; आनन्द—आनन्दमय; बाष्प-कलया—आँसुओं की धारा से; मुहु:—बारम्बार; अर्द्यमान:—अभिभूत होकर; विक्लिद्यमान—द्रवित; हृदय:—उसका हृदय; पुलक—रोमांच; आचित—ढका; अङ्ग:—उसका शरीर; न—नहीं; आत्मानम्—शरीर; अस्मरत्—स्मरण किया; असौ— वह; इति—इस प्रकार; मुक्त-लिङ्ग:—सूक्ष्म शरीर से मुक्त ।.
अनुवाद
दिव्य आनन्द के कारण उनके नेत्रों से सतत अश्रु बहने लगे, उनका हृदय द्रवित हो उठा और पूरे शरीर में कम्पन तथा रोमांच हो आया। भक्ति की समाधि में पहुँचने से ध्रुव महाराज अपने शारीरिक अस्तित्व को पूर्णत: भूल गये और तुरन्त ही भौतिक बन्धन से मुक्त हो गये।
तात्पर्य
निरन्तर भक्ति में लगे रहने से, जैसाकि नवधा भक्ति में संस्तुत है, भक्त के शरीर में विभिन्न लक्षण प्रकट होते हैं। ये आठ शारीरिक भाव, जिनसे पता चलता है कि भक्त भीतर से मुक्त हो चुका है, अष्ट सात्विक विकार कहलाते हैं। जब भक्त को अपने शरीर की रंच भर भी सुधि नहीं रह जाती तो समझना चाहिए कि वह मुक्त हो गया है। वह शरीर में बद्ध नहीं रहा है। यहाँ पर उदाहरण दिया जा सकता है कि जब नारियल पूरी तरह सूख जाता है, तो बाह्य खोल से भीतर की गरी विलग हो जाती है। सूखे नारियल को हिलाने से पता चलता है कि अन्दर की गरी बाहरी कोश या छिलके से लगी नहीं है। इसी प्रकार जब कोई भक्ति में पूर्ण रूप से लीन हो जाता है, तो वह सूक्ष्म तथा स्थूल शरीर रूपी भौतिक छिलकों से सर्वथा विलग हो जाता है। ध्रुव महाराज को जीवन की यह अवस्था निरन्तर भक्ति करते रहने से प्राप्त हो चुकी थी। उन्हें पहले ही महाभागवत कहा गया है, क्योंकि जब तक कोई महाभागवत अर्थात् उच्च कोटि का भक्त नहीं बन जाता, तब तक ये लक्षण प्रकट नहीं होते। भगवान् चैतन्य में ये समस्त लक्षण प्रकट थे। ठाकुर हरिदास में भी ये प्रकट थे और ऐसे अनेक भक्त हैं जिनमें ये लक्षण प्रकट रहते हैं। इनकी नकल नहीं की जानी चाहिए, किन्तु जब कोई सचमुच ही आगे बढ़ जाता है, तो ये लक्षण प्रकट होते हैं। उस समय यह समझना चाहिए कि भक्त भौतिक रूप से मुक्त हो गया है। निस्सन्देह, भक्ति प्रारम्भ करते ही मुक्ति का मार्ग खुल जाता है, जिस प्रकार पेड़ से तोड़ा गया नारियल तुरन्त सूखने लगता है; गरी को खोल से विलग होने में कुछ समय अवश्य लगता है।
इस श्लोक में एक महत्त्वपूर्ण शब्द आया है—मुक्त-लिङ्ग जिसका अर्थ है मुक्त सूक्ष्म शरीर। जब मनुष्य मरता है, तो वह स्थूल देह को त्याग देता है, किन्तु मन, बुद्धि तथा अहंकार का सूक्ष्म शरीर उसे नवीन देह में ले जाता है। इस देह में रहकर, वही सूक्ष्म देह मनुष्य को मानसिक विकास के कारण जीवन की एक अवस्था से दूसरे में ले जाती है। छोटे शिशु की मानसिक दशा बालक की दशा से भिन्न होती है और बालक की तरुण से तथा तरुण की वृद्ध पुरुष से भिन्न होती है। अत: मृत्यु के समय देहों का परिवर्तन सूक्ष्म देह के कारण होता है; मन, बुद्धि तथा अंहकार आत्मा को एक स्थूल देह से दूसरे में ले जाते हैं। यह आत्मा का देहान्तर कहलाता है। किन्तु एक अन्य अवस्था भी होती है, जब मनुष्य इस सूक्ष्म देह से भी मुक्त हो जाता है। उस समय जीवात्मा दिव्य या आत्मजगत को स्थानान्तरित होने के लिए पूरी तरह तैयार रहता है।
ध्रुव महाराज के शारीरिक लक्षणों के वर्णन से पता चलता है कि वे आध्यात्मिक (वैकुण्ठ धाम) में स्थानान्तरित होने के लिए पूर्ण रूप से उपयुक्त थे। हम दैनिक जीवन में भी सूक्ष्म तथा स्थूल शरीर का अनुभव कर सकते हैं। स्वप्न में मनुष्य का देह बिस्तर पर पड़ा रहता है, किन्तु सूक्ष्म देह, आत्मा, अर्थात् जीवात्मा को दूसरे परिवेश में ले जाता है। किन्तु स्थूल देह को बनाये रखना होता है इसलिए सूक्ष्म देह वापस चला आता है और स्थूल देह में पुन: बस जाता है। अत: मनुष्य को सूक्ष्म देह से भी स्वतंत्र होना पड़ता है। यह स्वतंत्रता मुक्त-लिङ्ग कहलाती है।
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