श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 12: ध्रुव महाराज का भगवान् के पास जाना  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  4.12.21 
विज्ञाय तावुत्तमगायकिङ्करा-
वभ्युत्थित: साध्वसविस्मृतक्रम: ।
ननाम नामानि गृणन्मधुद्विष:
पार्षत्प्रधानाविति संहताञ्जलि: ॥ २१ ॥
 
शब्दार्थ
विज्ञाय—जानकर; तौ—उन दोनों को; उत्तम-गाय—(उत्तम यशवाले) विष्णु के; किङ्करौ—दो दास; अभ्युत्थित:—खड़ा हो गया; साध्वस—हड़बड़ा कर; विस्मृत—भूल गया; क्रम:—उचित व्यवहार; ननाम—नमस्कार किया; नामानि—नामों को; गृणन्—उच्चारण करते, जपते; मधु-द्विष:—मधु के शत्रु, भगवान् के; पार्षत्—पार्षद; प्रधानौ—प्रमुख; इति—इस प्रकार; संहत—बद्ध; अञ्जलि:—हाथ जोड़े ।.
 
अनुवाद
 
 यह देखकर कि ये असाधारण पुरुष भगवान् के प्रत्यक्ष दास हैं, ध्रुव महाराज तुरन्त उठ खड़े हुए। किन्तु हड़बड़ाहट में जल्दी के कारण वे उचित रीति से उनका स्वागत करना भूल गये। अत: उन्होंने हाथ जोड़ कर केवल नमस्कार किया और वे भगवान् के पवित्र नामों की महिमा का जप करने लगे।
 
तात्पर्य
 भगवान् के पवित्र नाम का जप हर तरह से सम्पूर्ण होता है। जब ध्रुव महाराज ने चार भुजाओं वाले तथा सुवेश वाले विष्णु दूतों को देखा, तो वे जान गये कि ये कौन थे, किन्तु कुछ समय के लिए वे चकरा गये। किन्तु फिर भगवान् के पवित्र नाम अर्थात् हरे कृष्ण मंत्र का जप करके वे अकस्मात् प्रकट होनेवाले असामान्य अतिथियों को प्रसन्न कर सके। भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन सम्पूर्ण होता है। यद्यपि विष्णु को या उनके पार्षदों को प्रसन्न करने की विधि किसी को ज्ञात नहीं, फिर भी यदि निष्ठापूर्वक केवल उनके नाम का जप किया जाय तो सब कुछ ठीक हो जाता है। अत: भक्त, चाहे संकट में हो अथवा सुख में, हरे कृष्ण मंत्र का निरन्तर जप करता है। जब वह संकट में होता है, तो तुरन्त उससे छूट जाता है और जब वह भगवान् विष्णु या उनके पार्षदों का दर्शन करने की स्थिति में होता है, तो वह भगवान् को महामंत्र के जाप द्वारा प्रसन्न कर सकता है। महामंत्र की यह परम प्रकृति है। संकट तथा सुख दोनों की दशा में इसे बिना रोक-टोक के जपा जा सकता है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥