ध्रुव महाराज भगवान् श्रीकृष्ण के चरण-कमलों के चिन्तन में सदैव लीन रहते थे। उनका हृदय कृष्ण से पूरित था। जब परमेश्वर के दो निजी दास, जिनके नाम सुनन्द तथा नन्द थे, प्रसन्नतापूर्वक हँसते हुए उनके पास पहुँचे तो ध्रुव महाराज हाथ जोडक़र नम्रतापूर्वक सिर नीचा किये खड़े हो गये। तब उन्होंने धुव्र महाराज को इस प्रकार से सम्बोधित किया।
तात्पर्य
इस श्लोक में पुष्करनाभसम्मतौ शब्द महत्त्वपूर्ण है। श्रीकृष्ण अथवा भगवान् विष्णु अपने कमलनेत्रों, कमलनाभि, कमलचरण तथा कमलकरपल्लवों के लिए विख्यात हैं। यहाँ पर उन्हें पुष्करनाभ अर्थात् “कमलनाभ” कहा गया है तथा सम्मतौ का अर्थ है, “दो अत्यन्त आज्ञाकारी दास।” भौतिक जीवन प्रणाली आध्यात्मिक जीवन प्रणाली से इस बात में भिन्न है कि पहली प्रणाली तो परमेश्वर की अवज्ञा है और दूसरी आज्ञाकरिता। सभी जीवात्माएँ भगवान् के भिन्नांश हैं और वे सदैव भगवान् की आज्ञा का पालन करनेवाली हैं। यही पूर्ण एकात्मकता है।
वैकुण्ठलोक में सभी जीवात्माओं की भगवान् के साथ एकात्मता बनी रहती है क्योंकि वे कभी भी उनके आदेशों का उल्लंघन नहीं करते हैं। किन्तु भौतिक जगत में वे सम्मत अर्थात् अनुकूल नहीं होते, वे सदैव असम्मत अर्थात् प्रतिकूल रहते हैं। यह मानव जीवन भगवान् के आदेशों के अनुकूल बनाये जाने की शिक्षा दिए जाने का एक अवसर है। कृष्णभावनामृत आन्दोलन समाज में यह शिक्षा प्रदान करने के लिए ही है। जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है, भौतिक प्रकृति के नियम अत्यन्त कठोर हैं; कोई भी प्रकृति के अकाट्य नियमों का उल्लंघन नहीं कर सकता। किन्तु जो मनुष्य शरणागत होकर परमेश्वर के आदेश का पालन करता है, वह सरलता से इन कठोर नियमों को आसानी से लाँघ लेता है। ध्रुव महाराज का उदाहरण अत्यन्त उपयुक्त है। भगवान् के आदेशों के प्रति सम्मत होकर तथा उनके प्रति प्रेम उत्पन्न करके ही ध्रुव को विष्णु के विश्वस्त दासों के प्रत्यक्ष दर्शन पाने का अवसर प्राप्त हो सका। जो ध्रुव के लिए सम्भव था, वह सबके लिए सम्भव हो सकता है। जो कोई भी गम्भीरता से भक्ति में लग जाता है, वही समय आने पर वैसी ही जीवन-सिद्धि प्राप्त कर सकता है।
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