श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 12: ध्रुव महाराज का भगवान् के पास जाना  »  श्लोक 23
 
 
श्लोक  4.12.23 
सुनन्दनन्दावूचतु:
भो भो राजन्सुभद्रं ते वाचं नोऽवहित: श‍ृणु ।
य: पञ्चवर्षस्तपसा भवान्देवमतीतृपत् ॥ २३ ॥
 
शब्दार्थ
सुनन्द-नन्दौ ऊचतु:—सुनन्द तथा नन्द ने कहा; भो: भो: राजन्—हे राजा; सु-भद्रम्—कल्याण हो; ते—तुम्हारा; वाचम्— शब्द; न:—हमारे; अवहित:—ध्यानपूर्वक; शृणु—सुनो; य:—जो; पञ्च-वर्ष:—पाँच वर्ष के; तपसा—तपस्या द्वारा; भवान्— आप; देवम्—भगवान्; अतीतृपत्—अत्यधिक प्रसन्न ।.
 
अनुवाद
 
 विष्णु के दोनों विश्वस्त पार्षद सुनन्द तथा नन्द ने कहा : हे राजन्, आपका कल्याण हो। हम जो कहें, कृपया उसे ध्यानपूर्वक सुनें। जब आप पाँच वर्ष के थे तो आपने कठिन तपस्या की थी और उससे आपने पुरुषोत्तम भगवान् को अत्यधिक प्रसन्न कर लिया था।
 
तात्पर्य
 जो ध्रुव महाराज ने किया था, वह सबों के लिए सम्भव है। किसी भी पाँच वर्ष के बालक को शिक्षित किया जा सकता है और कुछ ही काल में उसे कृष्णचेतना का बोध हो सकता है और उस का जीवन सफल हो सकता है। दुर्भाग्यवश ऐसी शिक्षा का विश्व-भर में अभाव है। कृष्णभावनामृत आन्दोलन के अग्रणी पुरुषों का कर्तव्य है कि वे विश्व के विभिन्न भागों में बच्चों के प्रशिक्षण संस्थान खोलें जिनमें पाँच साल के बच्चे भर्ती हों। इस प्रकार ऐसे बालक न तो हिप्पी बनेंगे, न समाज के बिगड़े बालक रहेंगे; अपितु वे भगवद्भक्त हो जाएँगे। तब विश्व का मुखड़ा स्वत: बदला दिखेगा।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥