श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 12: ध्रुव महाराज का भगवान् के पास जाना  »  श्लोक 25
 
 
श्लोक  4.12.25 
सुदुर्जयं विष्णुपदं जितं त्वया
यत्सूरयोऽप्राप्य विचक्षते परम् ।
आतिष्ठ तच्चन्द्रदिवाकरादयो
ग्रहर्क्षतारा: परियन्ति दक्षिणम् ॥ २५ ॥
 
शब्दार्थ
सुदुर्जयम्—प्राप्त करना कठिन; विष्णु-पदम्—विष्णुलोक; जितम्—जीता गया; त्वया—तुम्हारे द्वारा; यत्—जो; सूरय:— बड़े-बड़े देवता; अप्राप्य—बिना प्राप्त किये; विचक्षते—केवल देखते हैं; परम्—परम; आतिष्ठ—आइये; तत्—उस; चन्द्र— चन्द्रमा; दिव-आकर—सूर्य; आदय:—इत्यादि; ग्रह—नौ ग्रह (बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल बृहस्पति, शनि, युरेनस, नेप्चून तथा प्लुटो); ऋक्ष-तारा:—नक्षत्र; परियन्ति—परिक्रमा करते हैं; दक्षिणम्—दाईं ओर ।.
 
अनुवाद
 
 विष्णुलोक को प्राप्त कर पाना अत्यन्त कठिन है, किन्तु आपने अपनी तपस्या से उसे जीत लिया है। बड़े-बड़े ऋषि तथा देवता भी इस पद को प्राप्त नहीं कर पाते। परमधाम (विष्णुलोक) के दर्शन करने के लिए ही सूर्य, चन्द्रमा तथा अन्य ग्रह, तारे, चन्द्र-भुवन (नक्षत्र) तथा सौर-मण्डल उसकी परिक्रमा करते हैं। कृपया आइये, वहाँ जाने के लिए आपका स्वागत है।
 
तात्पर्य
 इस भौतिक जगत में भी तथाकथित वैज्ञानिक, दार्शनिक तथा चिन्तक वैकुण्ठ तक जाने के लिए प्रयत्नशील हैं, किन्तु वे वहाँ कभी नहीं जा सकते। किन्तु भक्ति करते हुए भक्त न केवल वैकुण्ठलोक को जान पाता है, वरन् यथार्थ में वहाँ जाकर आनन्द तथा ज्ञान का शाश्वत जीवन बिताता है। कृष्णभावनामृत आन्दोलन इतना शक्तिमान है कि जीवन के नियमों का पालन करते हुए तथा भगवत्प्रेम उत्पन्न करके कोई भी भगवान् के धाम आसानी से वापस जा सकता है। इसके साक्षात् प्रमाण ध्रुव महाराज हैं। जहाँ विज्ञानीजन तथा दार्शनिक चन्द्रमा में जाकर वहाँ रुकने तथा रहने के प्रयासों में असफल रहते हैं, वहीं भक्त अन्य लोकों की यात्रा सुगमता से कर सकता है और अन्त में भगवान् के धाम जाता है। भक्तों को अन्य लोकों को देखने में रुचि नहीं रहती, किन्तु भगवान् के धाम जाते हुए वे इन समस्त लोकों को देखते हुए पार करते हैं जिस प्रकार कि दूर जानेवाला यात्री अनेक छोटे-छोटे स्टेशनों को पार करता जाता है।
 
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