एतद्विमानप्रवरमुत्तमश्लोकमौलिना ।
उपस्थापितमायुष्मन्नधिरोढुं त्वमर्हसि ॥ २७ ॥
शब्दार्थ
एतत्—वह; विमान—विमान; प्रवरम्—अद्वितीय; उत्तमश्लोक—भगवान्; मौलिना—समस्त जीवात्माओं में शिरोमणि; उपस्थापितम्—भेजा है; आयुष्मन्—हे दीर्घजीवी; अधिरोढुम्—चढऩे के लिए; त्वम्—तुम; अर्हसि—योग्य हो ।.
अनुवाद
हे दीर्घजीवी, इस अद्वितीय विमान को उन भगवान् ने भेजा है, जिनकी स्तुति उत्तम श्लोकों द्वारा की जाती है और जो समस्त जीवात्माओं के प्रमुख हैं। आप इस विमान में चढऩे के सर्वथा योग्य हैं।
तात्पर्य
ज्योतिष गणना के अनुसार ध्रुवतारा के साथ ही शिशुमार नामक एक अन्य तारा है, जहाँ संसार के पालनकर्ता विष्णु भगवान् वास करते हैं। शिशुमार अथवा ध्रुवलोक तक वैष्णवों के अतिरिक्त अन्य कोई भी नहीं जा सकता। जैसाकि आगे आने वाले श्लोकों में वर्णन किया जाएगा। ध्रुव महाराज के लिए विष्णु के पार्षद विशेष विमान लाये थे और उन्हें बताया कि भगवान् विष्णु ने यह विशेष विमान भेजा है।
वैकुण्ठ का यह विमान यंत्रों से नहीं चलता। अन्तरिक्ष में यात्रा करने की तीन विधियाँ हैं। इनमें से एक का पता आधुनिक विज्ञानियों को है। यह कपोत-वायु कहलाती है। क का अर्थ है, “अन्तरिक्ष” और कपोत का अर्थ है “यान।” दूसरी विधि भी कपोत-वायु है, जिसमें कपोत कबूतर का सूचक है। मनुष्य कबूतरों को प्रशिक्षित करके अन्तरिक्ष में जा सकता है। किन्तु तीसरी विधि अत्यन्त सूक्ष्म है। यह आकाश-पतन कहलाती है। यह विधि भौतिक भी है। जिस प्रकार मन बिना किसी यांत्रिक व्यवस्था के जहाँ चाहे घूम सकता है उसी प्रकार आकाशपतन विमान भी मन के वेग से उड़ सकता है। इस आकाश-पतन प्रणाली के परे वैकुण्ठ-विधि है, जो नितान्त आध्यात्मिक है। विष्णु ने ध्रुव महाराज को शिशुमार लाने के लिए जो विमान भेजा था वह पूर्ण रूप से आध्यात्मिक दिव्य विमान था। भौतिक विज्ञानी न तो ऐसे यान को देख सकते हैं और न कल्पना कर सकते हैं कि वह वायु में कैसे उड़ता है। यद्यपि भगवद्गीता में इसका उल्लेख है (परस्तस्मात्तु भावोऽन्य:) किन्तु भौतिक विज्ञानी को वैकुण्ठ (दिव्य आकाश) का कोई ज्ञान नहीं है।
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