चढऩे के पूर्व ध्रुव महाराज ने विमान की पूजा की, उसकी प्रदक्षिणा की और विष्णु के पार्षदों को भी नमस्कार किया। इसी दौरान वे पिघले सोने के समान तेजमय तथा देदीप्यमान हो उठे। इस प्रकार से वे उस दिव्ययान में चढऩे के लिए पूर्णत: सन्नद्ध थे।
तात्पर्य
परम जगत में यान, विष्णु के पार्षद तथा विष्णु स्वयं—ये सभी दिव्य (आध्यात्मिक) हैं। इनमें किसी प्रकार का भौतिक कल्मष नहीं है। गुण में भी वहाँ सभी वस्तुएँ एक हैं। जिस प्रकार विष्णु पूज्य हैं, वैसे ही उनके पार्षद, उनकी सामग्री, उनका विमान तथा उनका धाम भी है, क्योंकि विष्णु की सभी वस्तुएँ भगवान् विष्णु के ही समान हैं। परम वैष्णव होने के नाते ध्रुव महाराज को यह सब ज्ञात था, अत: उन्होंने चढऩे के पूर्व पार्षदों तथा विमान को भी प्रणाम किया। किन्तु इसी दौरान उनके शरीर ने आत्मस्वरूप धारण कर लिया, अत: वह पिघले सोने के समान जगमगा रहा था। इस प्रकार वे भी विष्णुलोक की अन्य सामग्रियों के समान हो गये।
मायावादी चिन्तक सोच नहीं पाते कि विभिन्न विषमताओं में यह एकत्व कैसे प्राप्त किया जा सकता है। उनके एकत्व का भाव यह है कि कोई भी विभिन्नता नहीं होती, अत: वे निर्गुणवादी हो गए हैं। चूँकि शिशुमार, विष्णुलोक अथवा ध्रुव लोक इस जगत से सर्वथा भिन्न हैं, अत: विष्णु मन्दिर भी इस भौतिक जगत से सर्वथा भिन्न होता है। जब हम मन्दिर में हों तो हमें यह समझना होगा कि हम भौतिक जगत से सर्वथा पृथक् स्थित हैं। मन्दिर में विष्णु जी, उनका आसन, उनका कक्ष तथा मन्दिर से सम्बधित अन्य सामग्रियाँ दिव्य होती हैं। इस मन्दिर में सत्त्व, रजो तथा तमो गुणों का प्रवेश नहीं हो पाता। अत: कहा गया है कि जंगल का वास सतोगुणी है, नगर वास रजोगुणी और वेश्यालय, मदिरालय या बूचडख़ाने का वास तमोगुणी है। किन्तु मन्दिर का वास तो विष्णुलोक का वास है। मन्दिर की प्रत्येक वस्तु विष्णु या कृष्ण के ही समान पूजनीय है।
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