हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 12: ध्रुव महाराज का भगवान् के पास जाना  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  4.12.32 
स च स्वर्लोकमारोक्ष्यन् सुनीतिं जननीं ध्रुव: ।
अन्वस्मरदगं हित्वा दीनां यास्ये त्रिविष्टपम् ॥ ३२ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वह; —भी; स्व:-लोकम्—दैव लोक को; आरोक्ष्यन्—चढ़ते समय; सुनीतिम्—सुनीति को; जननीम्—माता; ध्रुव:— ध्रुव महाराज ने; अन्वस्मरत्—स्मरण किया; अगम्—प्राप्त करना कठिन; हित्वा—पीछे छोड़ कर; दीनाम्—बेचारी; यास्ये—मैं जाऊँगा; त्रि-विष्टपम्—वैकुण्ठलोक को ।.
 
अनुवाद
 
 ध्रुव महाराज जब उस दिव्य विमान पर बैठे थे, जो चलनेवाला था, तो उन्हें अपनी बेचारी माता सुनीति का स्मरण हो आया। वे सोचने लगे, “मैं अपनी बेचारी माता को छोड़ कर वैकुण्ठलोक अकेले कैसे जा सकूँगा?”
 
तात्पर्य
 ध्रुव महाराज अपनी माता सुनीति के प्रति अत्यन्त कृतज्ञता का अनुभव कर रहे थे। उन्हीं के मार्गदर्शन पर वे स्वयं विष्णु के पार्षदों द्वारा वैकुण्ठलोक ले जाये जाने में समर्थ हो पाये। अब उन्हें माता की याद आ रही थी और वे उन्हें भी साथ ले जाना चाहते थे। वस्तुत: ध्रुव महाराज की माता सुनीति ही उनकी पथ-प्रदर्शक गुरु थीं। ऐसा गुरु कभी-कभी शिक्षा-गुरु कहलाता है। यद्यपि नारद मुनि उनके दीक्षा-गुरु थे, किन्तु उनकी माता सुनीति ने ही भगवान् की कृपा प्राप्त करने की विधि की शिक्षा दी थी। शिक्षा-गुरु या दीक्षा-गुरु का कर्तव्य है कि वह शिष्य को सही-सही शिक्षा दे और उसको कार्यान्वित करना शिष्य पर निर्भर करता है। शास्त्रीय आदेशों के अनुसार शिक्षा-गुरु तथा दीक्षा- गुरु में कोई अन्तर नहीं है। सामान्यत: शिक्षा-गुरु ही बाद में दीक्षा-गुरु बनता है। किन्तु स्त्री होने के कारण विशेष रूप से माता होने के कारण, सुनीति अपने पुत्र महाराज ध्रुव की दीक्षा-गुरु नहीं हो सकती थीं। तो भी वे सुनीति के प्रति कम कृतज्ञ न थे। नारद मुनि को विष्णुलोक ले जाने का प्रश्न ही नहीं उठता, किन्तु ध्रुव महाराज ने अपनी माता को ले जाने के लिए सोचा।

जो कुछ भगवान् की योजना होती है, वह तुरन्त फलवती होती है। इसी प्रकार जो भक्त परमेश्वर पर पूर्णत: आश्रित है, वह भगवत्कृपा से अपनी सारी इच्छाएँ पूरी कर सकता है। भगवान् अपनी इच्छाओं की पूर्ति स्वतंत्र रूप से करते हैं, किन्तु भक्त को भगवान् पर निर्भर रह कर अपनी इच्छाएं पूरी करनी पड़ती है। अत: ज्योंही ध्रुव महाराज ने अपनी बेचारी माता के विषय में सोचा, तो विष्णु के पार्षदों ने विश्वास दिलाया कि सुनीति भी दूसरे विमान से विष्णुलोक को चल रही हैं। ध्रुव महाराज ने सोचा था कि वे अपनी माँ को छोड़ कर अकेले ही वैकुण्ठलोक जा रहे हैं। यह अच्छा नहीं था, क्योंकि तब लोग आलोचना करेंगे कि वे अपनी माता को साथ नहीं ले गये, जिसने उनके लिए इतना किया। किन्तु ध्रुव ने यह भी विचार किया कि वे व्यक्तिगत रूप से परमेश्वर नहीं थे, अत: जब श्रीकृष्ण उनकी इच्छाओं को पूरा करेंगे, तभी यह सम्भव हो सकेगा। कृष्ण ने तुरन्त उनका मनोभाव जान लिया, अत: उन्होंने ध्रुव को बता दिया कि उनकी माता भी उनके साथ ही चल रही हैं। यह घटना सिद्ध करती है कि ध्रुव महाराज जैसे भक्त की समस्त इच्छाएँ पूरी होती हैं; भगवत्कृपा से वह भगवान् के ही समान हो जाता है और जब भी वह किसी वस्तु के लिए सोचता है, तो उसकी इच्छा तुरन्त पूर्ण हो जाती है।

 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥