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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 12: ध्रुव महाराज का भगवान् के पास जाना  »  श्लोक 33
 
 
श्लोक  4.12.33 
इति व्यवसितं तस्य व्यवसाय सुरोत्तमौ ।
दर्शयामासतुर्देवीं पुरो यानेन गच्छतीम् ॥ ३३ ॥
 
शब्दार्थ
इति—इस प्रकार; व्यवसितम्—चिन्तन; तस्य—ध्रुव का; व्यवसाय—ज्ञान; सुर-उत्तमौ—दो प्रमुख पार्षद; दर्शयाम् आसतु:— (उसको) दिखाया; देवीम्—पूज्या सुनीति; पुर:—समक्ष; यानेन—विमान से; गच्छतीम्—आगे जाती हुई ।.
 
अनुवाद
 
 वैकुण्ठलोक के महान् पार्षद नन्द तथा सुनन्द ध्रुव महाराज के मन की बात जान गये, अत: उन्होंने उन्हें दिखाया कि उनकी माता सुनीति दूसरे यान में आगे-आगे जा रही हैं।
 
तात्पर्य
 यह घटना सिद्ध करती है कि जिस शिक्षा या दीक्षा-गुरु के ध्रुव महाराज जैसा शिष्य हो, जो इतनी दृढ़ता से भक्ति करे, तो उसे शिष्य अपने साथ ले जाता है भले ही गुरु उतना बढ़ा चढ़ा न हो। यद्यपि सुनीति ध्रुव महाराज को उपदेश देनेवाली थीं, किन्तु स्त्री होने के कारण वे न तो जंगल जा सकीं, न ध्रुव महाराज के समान तपस्या कर सकीं। तो भी ध्रुव महाराज अपनी माता को अपने साथ ले जाने में समर्थ हो सके। इसी प्रकार प्रह्लाद महाराज ने भी अपने नास्तिक पिता हिरण्यकशिपु का उद्धार किया। इससे यह निष्कर्ष निकला कि यदि शिष्य अथवा सन्तान अत्यधिक प्रबल भक्त हो तो वह अपने पिता-माता अथवा शिक्षा या दीक्षा-गुरु को अपने साथ वैकुण्ठलोक ले जा सकता है। श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर कहा करते थे, “यदि मैं एक भी जीव को भगवान् के धाम पहुँचा सका तो मैं समझूँगा कि मेरा उद्देश्य—कृष्णभावनामृत का प्रसार—सफल हुआ।” अब कृष्णभावनामृत आन्दोलन विश्व भर में फैल रहा है और कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि यद्यपि मैं अनेक मामलों में पंगु हूँ, किन्तु यदि मेरा एक भी शिष्य ध्रुव महाराज के समान शक्तिशाली हो जाये तो वह अपने साथ मुझे भी वैकुण्ठलोक ले जाने में समर्थ हो सकता है।
 
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