तत्र तत्र—जहाँ-तहाँ; प्रशंसद्भि:—ध्रुव महाराज के प्रशंसकों द्वारा; पथि—रास्ते में; वैमानिकै:—विभिन्न प्रकार के यानों द्वारा ले जाये जानेवाले; सुरै:—देवताओं द्वारा; अवकीर्यमाण:—बिखेरा जाकर; ददृशे—देख सके; कुसुमै:—फूलों से; क्रमश:—एक के पश्चात् एक; ग्रहान्—सौर मण्डल के समस्त ग्रह ।.
अनुवाद
आकाश-मार्ग से जाते हुए ध्रुव महाराज ने क्रमश: सौर मण्डल के सभी ग्रहों को देखा और रास्ते में समस्त देवताओं को उनके विमानों में से अपने ऊपर फूलों की वर्षा करते देखा।
तात्पर्य
एक वैदिक उक्ति है—यस्मिन् विज्ञाते सर्वमेव विज्ञातं भवति—अर्थात् भगवान् को जान लेने पर भक्त को सब कुछ ज्ञात हो जाता है। इसी प्रकार भगवान् के लोक जाने से मनुष्य को वैकुण्ठलोक के मार्ग में पडऩेवाले अन्य सभी लोकों का ज्ञान हो जाता है। हमें स्मरण रखना चाहिए कि ध्रुव महाराज का शरीर हमसे भिन्न था। वैकुण्ठ-विमान में चढ़ते समय उनका शरीर दिव्य सुनहरे रंग का हो गया था। कोई भी व्यक्ति भौतिक देह से उच्च लोकों को पार नहीं कर सकता, किन्तु जब उसे दिव्य-देह प्राप्त हो जाती है, तो वह न केवल इस जगत के उच्चतर लोकों को पार कर सकता है, वरन् इनसे परे उच्च लोक, वैकुण्ठलोक तक भी जा सकता है। यह सुविदित है कि नारद मुनिवैकुण्ठ तथा भौतिक जगत दोनों में सर्वत्र—विचरते रहते हैं।
यह भी ध्यान देने की बात है कि वैकुण्ठलोक जाते समय सुनीति का भी शरीर दिव्य-रूप हो गया था। सुनीति की भाँति ही प्रत्येक माता को चाहिए कि वह अपनी सन्तान को ध्रुव महाराज के समान भक्त बनने की शिक्षा दे। जब ध्रुव पाँच वर्ष के थे तभी सुनीति ने उन्हें शिक्षा दी कि इस संसार से विरक्त होकर भगवान् की खोज करने जंगल में जाओ। वह कभी नहीं चाहती थीं कि उनका पुत्र भगवान् की कृपा प्राप्त करने के लिए तप किये बिना घर में ही सुख से रहे। हर माता को सुनीति की ही तरह अपने पुत्र की का पालन करना चाहिए और पाँच वर्ष की आयु से ही ब्रह्मचारी बनने तथा आत्म-साक्षात्कार के लिए तपस्या करने की शिक्षा देनी चाहिए। इससे यह लाभ होगा कि यदि पुत्र ध्रुव के समान भक्त हुआ तो न केवल वह भगवान् के धाम को जाएगा, वरन् उसकी माता भी उसी के साथ वैकुण्ठलोक को जा सकेगी, भले ही वह भक्ति के लिए तपस्या करने में असमर्थ रही हो।
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