श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 12: ध्रुव महाराज का भगवान् के पास जाना  »  श्लोक 35
 
 
श्लोक  4.12.35 
त्रिलोकीं देवयानेन सोऽतिव्रज्य मुनीनपि ।
परस्ताद्यद् ध्रुवगतिर्विष्णो: पदमथाभ्यगात् ॥ ३५ ॥
 
शब्दार्थ
त्रि-लोकीम्—तीनों लोक; देव-यानेन—दिव्य विमान से; स:—ध्रुव; अतिव्रज्य—पार करके; मुनीन्—मुनिगण; अपि—भी; परस्तात्—परे; यत्—जो; ध्रुव-गति:—ध्रुव जिन्होंने अविचल जीवन प्राप्त किया; विष्णो:—भगवान् विष्णु का; पदम्—धाम; अथ—तब; अभ्यगात्—प्राप्त किया ।.
 
अनुवाद
 
 इस प्रकार ध्रुव महाराज ने सप्तर्षि कहलानेवाले ऋषियों के सात लोकों को पार किया। इसके परे उन्होंने उस लोक में अविचल दिव्य पद प्राप्त किया जहाँ भगवान् विष्णु वास करते हैं।
 
तात्पर्य
 भगवान् विष्णु के दो प्रमुख पार्षद, जिनके नाम सुनन्द तथा नन्द थे, विमान को चला रहे थे। ऐसे ही दिव्य अन्तरिक्षयात्री अपना यान सप्तलोकों के परे चलाकर शाश्वत आनन्दमय जीवन के प्रक्षेत्र में प्रवेश करा पाते हैं। भगवद्गीता में भी इसकी पुष्टि हुई है (परस्तस्मात्तु भावोऽन्य:) कि इस लोक से आगे वैकुण्ठ शुरू हो जाता है, जहाँ हर वस्तु स्थायी और आनन्दमय है। ये लोक विष्णुलोक या वैकुण्ठलोक कहलाते हैं। वहीं ज्ञान का आनन्दमय जीवन प्राप्त हो सकता है। वैकुण्ठलोक के नीचे भौतिक ब्रह्माण्ड है, जहाँ ब्रह्मा तथा अन्य ब्रह्मलोक के वासी प्रलय होने तक वास करते हैं, किन्तु यह जीवन स्थायी नहीं है। भगवद्गीता में भी इसकी पुष्टि मिलती है (आब्रह्म भुवनाल्लोका:)। भले ही कोई उच्चतम लोक चला जाये, किन्तु शाश्वत जीवन प्राप्त नहीं होगा। केवल वैकुण्ठलोक पहुँच कर शाश्वत एवं आनन्दमय जीवन जिया जा सकता है।
 
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