श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 12: ध्रुव महाराज का भगवान् के पास जाना  »  श्लोक 36
 
 
श्लोक  4.12.36 
यद्भ्राजमानं स्वरुचैव सर्वतो
लोकास्त्रयो ह्यनु विभ्राजन्त एते ।
यन्नाव्रजञ्जन्तुषु येऽननुग्रहा
व्रजन्ति भद्राणि चरन्ति येऽनिशम् ॥ ३६ ॥
 
शब्दार्थ
यत्—जो लोक; भ्राजमानम्—आलोकित; स्व-रुचा—अपने तेज से; एव—केवल; सर्वत:—सब जगह; लोका:—लोक; त्रय:—तीन; हि—निश्चय ही; अनु—तत्पश्चात्; विभ्राजन्ते—प्रकाश करते हैं; एते—ये; यत्—जो लोक; न—नहीं; अव्रजन्— पहुँच गये हैं; जन्तुषु—जीवात्माओं को; ये—जो; अननुग्रहा:—रुष्ट; व्रजन्ति—पहुँचते हैं; भद्राणि—शुभ कार्य; चरन्ति—प्रवृत्त होते हैं; ये—जो; अनिशम्—निरन्तर ।.
 
अनुवाद
 
 जो लोग दूसरे जीवों पर दयालु नहीं होते, वे स्वतेजोमय इन वैकुण्ठलोकों में नहीं पहुँच पाते, जिनके प्रकाश से इस भौतिक ब्रह्माण्ड के सभी लोक प्रकाशित हैं। जो व्यक्ति निरन्तर अन्य प्राणियों के कल्याणकारी कार्यों में लगे रहते हैं, केवल वे ही वैकुण्ठलोक पहुँच पाते हैं।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर वैकुण्ठलोकों के दो पक्षों का वर्णन हुआ है। पहला तो यह है कि वैकुण्ठलोक को सूर्य तथा चन्द्रमा की आवश्यकता नहीं है। इसकी पुष्टि उपनिषदों तथा भगवद्गीता से होती है (न तद् भासयते सूर्यो न शशांको न पावक:)। वैकुण्ठलोक स्वयंप्रकाशित हैं, अत: सूर्य, चन्द्रमा या विद्युत् बल्बों की वहाँ कोई आवश्यकता नहीं है। तथ्य तो यह है कि वैकुण्ठलोकों का प्रकाश ही आकाश में प्रतिबिम्बित होता है। इसी के प्रकाश से भौतिक ब्रह्माण्ड के सूर्य प्रकाशित होते हैं और सूर्य के प्रकाशित होने पर समस्त तारे तथा चन्द्र भी प्रकाशित होते हैं। कहने का तात्पर्य यह कि भौतिक व्योम के सभी नक्षत्रगण वैकुण्ठलोक से प्रकाश प्राप्त करते हैं। यदि लोग अन्य जीवों के लगातार लिए कल्याणकारी कार्य करते हैं, तो इस भौतिक लोक से वे वैकुण्ठलोक को जाते हैं। ऐसे कल्याणकारी कार्य कृष्णचेतना में ही किये जा सकते हैं। इस भौतिक जगत में कृष्णभावनामृत के अतिरिक्त कोई भी ऐसा परोपकार नहीं है, जिसमें कोई चौबीसों घण्टे लगा रह सके।

कृष्णभावनाभावित व्यक्ति सदैव यह सोचने में लगा रहता है कि दुखी मानवजाति को किस प्रकार भगवान् के धाम ले जाया जाये। यदि उसे समस्त पतित जीवों को उबारने में सफलता नहीं मिलती तो भी कृष्णचेतनामय होने के कारण उसके लिए वैकुण्ठ का द्वार खुला रहता है। वह स्वयं वैकुण्ठलोक में प्रविष्ट होने का पात्र तो रहता ही है, यदि कोई उसका अनुसरण करता है, तो वह भी वैकुण्ठलोक को जाता है। अन्य लोग, जो ईर्ष्या-व्यापार में लगे रहते हैं, कर्मी कहलाते हैं। वे परस्पर ईर्ष्या करते हैं। वे अपनी इन्द्रियतुष्टि के लिए हजारों निर्दोष प्राणियों का वध कर सकते हैं। ज्ञानी लोग कर्मियों के समान पापी नहीं होते, किन्तु वे अन्यों को भगवान् के धाम ले जाने का यत्न नहीं करते। वे अपनी ही मुक्ति के लिए तपस्या करते हैं। योगी भी आत्मोन्नति के लिए योगशक्ति प्राप्त करने के प्रयास में लगे रहते हैं। किन्तु भक्त अर्थात् वैष्णव, जो भगवान् के दास हैं, वे पतितात्माओं के उद्धार के लिए कृष्णचेतना के कार्यक्षेत्र में आगे बढक़र कार्य करते हैं। केवल कृष्णचेतनायुक्त व्यक्ति ही वैकुण्ठलोक में जाने के योग्य होते हैं। इस श्लोक में इसका स्पष्ट रूप से वर्णन हुआ है और भगवद्गीता में भी इसकी पुष्टि हुई है, जहाँ भगवान् कहते हैं कि जो व्यक्ति भगवद्गीता का संदेश विश्व भर में प्रचारित करता है, उसके समान उन्हें कोई अन्य प्रिय नहीं है।

 
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