श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 12: ध्रुव महाराज का भगवान् के पास जाना  »  श्लोक 38
 
 
श्लोक  4.12.38 
इत्युत्तानपद: पुत्रो ध्रुव: कृष्णपरायण: ।
अभूत्‍त्रयाणां लोकानां चूडामणिरिवामल: ॥ ३८ ॥
 
शब्दार्थ
इति—इस प्रकार; उत्तानपद:—महाराज उत्तानपाद का; पुत्र:—पुत्र; ध्रुव:—ध्रुव महाराज; कृष्ण-परायण:—पूर्णतया कृष्णभावनाभावित; अभूत्—हुआ; त्रयाणाम्—तीनों; लोकानाम्—लोकों का; चूडा-मणि:—शीशफूल, श्रेष्ठ; इव—समान; अमल:—शुद्ध, पवित्र ।.
 
अनुवाद
 
 इस प्रकार महाराज उत्तानपाद के अति सम्माननीय पुत्र, पूरी तरह से कृष्णभावनाभावित ध्रुव महाराज ने तीनों लोकों में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया।
 
तात्पर्य
 संस्कृत भाषा का कृष्णपरायण शब्द कृष्णभावनामृत या कृष्णचेतना का सही द्योतक है। परायण का अर्थ है “अग्रसर होना।” जो भी कृष्ण के लक्ष्य की ओर आगे बढ़ रहा हो वह कृष्णपरायण या कृष्णचेतनामय कहलाता है। ध्रुव महाराज के उदाहरण से सूचित होता है कि प्रत्येक कृष्णभक्त तीनों लोकों के शीर्ष पर पहुँचने की आशा कर सकता है। कृष्णभक्त किसी भी महत्त्वाकांक्षी भौतिकतावादी की कल्पना से परे उच्च स्थान ग्रहण कर सकता है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥