श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 12: ध्रुव महाराज का भगवान् के पास जाना  »  श्लोक 39
 
 
श्लोक  4.12.39 
गम्भीरवेगोऽनिमिषं ज्योतिषां चक्रमाहितम् ।
यस्मिन् भ्रमति कौरव्य मेढ्यामिव गवां गण: ॥ ३९ ॥
 
शब्दार्थ
गम्भीर-वेग:—अत्यधिक वेग से; अनिमिषम्—निरन्तर; ज्योतिषाम्—नक्षत्रों का; चक्रम्—गोलक; आहितम्—जड़ा हुआ; यस्मिन्—जिसके चारों ओर; भ्रमति—घूमता है, चक्कर लगाता है; कौरव्य—हे विदुर; मेढ्याम्—मध्यवर्ती स्तम्भ; इव—सदृश; गवाम्—बैलों का; गण:—समूह ।.
 
अनुवाद
 
 सन्त मैत्रेय ने आगे कहा : हे कौरव वंशी विदुर, जिस प्रकार बैल अपनी दाईं ओर बँाधे मध्यवर्ती लट्ठे के चारों ओर चक्कर लगाते हैं, उसी प्रकार आकाश के सभी नक्षत्र अत्यन्त वेग से ध्रुव महाराज के धाम का निरन्तर चक्कर लगाते रहते हैं।
 
तात्पर्य
 इस ब्रह्माण्ड का प्रत्येक ग्रह अत्यन्त वेग से यात्रा करता है। श्रीमद्भागवत के कथन से पता चलता है कि सूर्य भी सोलह हजार मील प्रति सेकंड की गति से यात्रा करता है और ब्रह्म-संहिता के इस श्लोक—यच्चक्षुरेष सविता सकलग्रहाणाम्—में सूर्य को भगवान् गोविन्द का नेत्र माना गया है। इसकी भी एक कक्षा होती है, जिसके भीतर यह चक्कर लगाता रहता है। इसी प्रकार अन्य समस्त ग्रहों की अपनी-अपनी कक्षाएँ हैं। किन्तु वे सभी मिलकर ध्रुवतारा या ध्रुवलोक की प्रदक्षिणा करते हैं, जहाँ पर तीनों लोकों के शीर्ष पर ध्रुव महाराज स्थित हैं। हम केवल अनुमान लगा सकते हैं कि भक्त का वास्तविक स्थान कितना ऊँचा होता है, अत: हम भगवान् के पद की श्रेष्ठता का अनुमान लगा ही नहीं सकते।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥