श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 12: ध्रुव महाराज का भगवान् के पास जाना  »  श्लोक 4
 
 
श्लोक  4.12.4 
अहं त्वमित्यपार्था धीरज्ञानात्पुरुषस्य हि ।
स्वाप्नीवाभात्यतद्ध्यानाद्यया बन्धविपर्ययौ ॥ ४ ॥
 
शब्दार्थ
अहम्—मैं; त्वम्—तुम; इति—इस प्रकार; अपार्था—मिथ्या; धी:—बुद्धि; अज्ञानात्—अज्ञान से; पुरुषस्य—पुरुष के; हि— निश्चय ही; स्वाप्नि—स्वप्न; इव—सदृश; आभाति—प्रकट होती है; अ-तत्-ध्यानात्—देहात्मबुद्धि से; यया—जिससे; बन्ध— बन्धन; विपर्ययौ—तथा दुख ।.
 
अनुवाद
 
 देहात्मबुद्धि के आधार पर स्व तथा अन्यों का ‘मैं’ तथा ‘तुम’ के रूप में मिथ्याबोध अविद्या की उपज है। यही देहात्मबुद्धि जन्म-मृत्यु के चक्र का कारण है और इसीसे इस जगत में हमें निरन्तर बने रहना पड़ता है।
 
तात्पर्य
 अहं त्वम् अर्थात् मैं और तुम का भाव भगवान् से अपने शाश्वत सम्बन्ध को भूलने के कारण उत्पन्न होता है। परम पुरुष कृष्ण केन्द्र-बिन्दु हैं और हम सब उनके भिन्नांश हैं, ठीक वैसे ही जैसे हाथ तथा पाँव पूरे शरीर के अंश हैं। जब हमें यह ज्ञान हो जाता है कि हम परमेश्वर से शाश्वत रूप से जुड़े हैं, तो देहात्म-बुद्धिजन्य यह अन्तर नहीं रह सकता। इसी उदाहरण को यहाँ प्रयुक्त समझना चाहिए—हाथ-हाथ है और पैर-पैर, किन्तु जब वे दोनों सम्पूर्ण शरीर की सेवा में लगे जाते हैं, तो हाथ-पाँव का अन्तर नहीं रह जाता, क्योंकि ये शरीर के अंग हैं तथा कार्य करनेवाले सभी अंगों के साथ मिलकर पूरे शरीर की रचना करते हैं। इसी प्रकार जब जीवात्माएं कृष्णभावनाभावित हो जाती हैं, तब “मैं” और “तुम” का अन्तर नहीं रह जाता क्योंकि तब प्रत्येक जीवात्मा भगवान् की सेवा में लगी होती है। चूँकि भगवान् परम पूर्ण हैं, अत: सेवाएँ भी परम हैं। चूँकि हाथ एक प्रकार से काम करते हैं और पाँव दूसरी तरह से, किन्तु उनका उद्देश्य परमेश्वर की सेवा करना है, अत: वे सब एक हैं। इसमें तथा मायावादी चिन्तक के इस कथन में कि सभी वस्तुएँ एक हैं, भ्रम नहीं होना चाहिए। वास्तविक ज्ञान तो यह है कि हाथ-हाथ है और पाँव-पाँव, शरीर-शरीर है, तो भी सब मिलकर एक हैं। ज्योंही जीवात्मा सोचता है कि वह स्वतंत्र है, वैसे ही बद्धजीवन प्रारम्भ होता है। अत: स्वतंत्र सत्ता का विचार स्वप्नवत् है। मनुष्य को कृष्णचेतना अथवा अपने मूल स्थिति में रहना चाहिए। तभी वह भव-बन्धन से छूट सकता है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥