श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 12: ध्रुव महाराज का भगवान् के पास जाना  »  श्लोक 41
 
 
श्लोक  4.12.41 
नारद उवाच
नूनं सुनीते: पतिदेवताया-
स्तप:प्रभावस्य सुतस्य तां गतिम् ।
दृष्ट्वाभ्युपायानपि वेदवादिनो
नैवाधिगन्तुं प्रभवन्ति किं नृपा: ॥ ४१ ॥
 
शब्दार्थ
नारद: उवाच—नारद ने कहा; नूनम्—निश्चय ही; सुनीते:—सुनीति का; पति-देवताया:—पति-परायणा, अत्यन्त पतिव्रता; तप:-प्रभावस्य—तप के प्रभाव से; सुतस्य—पुत्र का; ताम्—उस; गतिम्—स्थिति को; दृष्ट्वा—देखकर; अभ्युपायान्—साधन; अपि—यद्यपि; वेद-वादिन:—वैदिक नियमों के पालक या तथाकथित वेदान्ती; न—कभी नहीं; एव—निश्चय ही; अधिगन्तुम्—प्राप्त करने के लिए; प्रभवन्ति—पात्र हैं; किम्—क्या कहा जाये; नृपा:—सामान्य राजाओं की ।.
 
अनुवाद
 
 महर्षि नारद ने आगे कहा : अपनी आत्मिक उन्नति तथा सशक्त तपस्या के प्रभाव से ही पतिपरायणा सुनीति के पुत्र ध्रुव महाराज ने ऐसा उच्च पद प्राप्त किया है, जो तथाकथित वेदान्तियों के लिए भी प्राप्त करना सम्भव नहीं, सामान्य मनुष्यों की तो बात ही क्या कही जाये।
 
तात्पर्य
 इस श्लोक में वेद-वादिन: शब्द महत्त्व का है। सामान्यत: जो व्यक्ति वेदों का दृढ़ता से पालन करता है, वह वेदवादी कहलाता है। इनके साथ ही, तथाकथित वेदान्ती भी हैं, जो अपने आप को वेदान्त दर्शन का अनुयायी घोषित करते रहते हैं, किन्तु वे वेदान्त की गलत व्याख्या करते हैं। भगवद्गीता में भी वेद-वाद-रता: शब्द आया है, जो ऐसे व्यक्तियों का सूचक है, जो वेदों का सार समझे बिना वेदों में आसक्त रहते हैं। ऐसे लोग वेदों के सम्बध में बातें करते रहें या अपने ढंग से तपस्याएँ करते रहें, किन्तु वे ध्रुव महाराज जैसे उच्च पद को प्राप्त नहीं कर पाते। जहाँ तक सामान्य राजाओं का सम्बन्ध है, यह बिल्कुल सम्भव भी नहीं है। यहाँ पर राजाओं का विशेष रूप से उल्लेख है क्योंकि पहले समय में राजा भी राजर्षि हुआ करते थे। ध्रुव महाराज राजा थे और साथ ही वे ऋषि के समान ज्ञानी भी थे। किन्तु भक्ति के बिना न तो महान् क्षत्रिय राजा, न ही वेदवादी ब्राह्मण ध्रुव महाराज जैसे उच्च पद को प्राप्त कर सकता है।
 
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