श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 12: ध्रुव महाराज का भगवान् के पास जाना  »  श्लोक 42
 
 
श्लोक  4.12.42 
य: पञ्चवर्षो गुरुदारवाक्शरै-
र्भिन्नेन यातो हृदयेन दूयता ।
वनं मदादेशकरोऽजितं प्रभुं
जिगाय तद्भक्तगुणै: पराजितम् ॥ ४२ ॥
 
शब्दार्थ
य:—जो; पञ्च-वर्ष:—पाँच वर्ष की अवस्था में; गुरु-दार—अपने पिता की पत्नी के; वाक्-शरै:—कटु वचनों से; भिन्नेन— मर्माहत, अत्यधिक दुखित होकर; यात:—चला गया; हृदयेन—क्योंकि उसका हृदय; दूयता—अत्यधिक पीडि़त; वनम्— जंगल; मत्-आदेश—मेरे आदेश के अनुसार; कर:—कार्य करते हुए; अजितम्—न जीता जा सकने योग्य; प्रभुम्—भगवान् को; जिगाय—परास्त कर दिया; तत्—उसके; भक्त—भक्तों के; गुणै:—गुणों से; पराजितम्—जीता हुआ ।.
 
अनुवाद
 
 महर्षि नारद ने आगे कहा : देखो न, किस प्रकार ध्रुव महाराज अपनी विमाता के कटु वचनों से मर्माहत होकर केवल पाँच वर्ष की अवस्था में जंगल चले गये और उन्होंने मेरे निर्देशन में तपस्या की। यद्यपि भगवान् अजेय हैं, किन्तु ध्रुव महाराज ने भगवद्भक्तों के विशिष्ट गुणों से समन्वित होकर उन्हें परास्त कर दिया।
 
तात्पर्य
 परमेश्वर अजेय हैं, उन्हें कोई भी जीत नहीं सकता। किन्तु वे स्वेच्छा से अपने भक्तों की भक्ति के गुणों की अधीनता स्वीकार करते हैं। उदाहरणार्थ, भगवान् कृष्ण ने अपनी माता यशोदा के नियंत्रण की अधीनता स्वीकार की क्योंकि वे एक महान् भक्त थीं। भगवान् को अपने भक्तों की अधीनता प्रिय लगती है। चैतन्यचरितामृत में उल्लेख है कि प्रत्येक व्यक्ति भगवान् के समक्ष आकर स्तुति करता है, किन्तु भगवान् उससे उतने प्रसन्न नहीं होते जितना कि वे अपने को अधीन समझकर अपने भक्तों की प्रेममयी डांट से प्रसन्न होते हैं। भगवान् अपनी उच्चस्थ स्थिति को भूल कर अपने शुद्ध भक्त के समक्ष स्वेच्छा से समर्पण कर देते हैं। ध्रुव महाराज भगवान् को इसीलिए जीत पाये क्योंकि जब वे पाँच वर्ष के थे तभी उन्होंने भक्ति करने के लिए कठोर तपस्या की थी। यह भक्ति निस्सन्देह, नारद मुनि के निर्देशन में सम्पन्न हुई थी। भक्ति का प्रथम नियम है—आदौ गुर्वाश्रयम्—प्रारम्भ में प्रामाणिक गुरु स्वीकार करना होता है और यदि भक्त गुरु के आदेशों का दृढ़ता से पालन करता है, जिस प्रकार ध्रुव महाराज ने नारद मुनि के आदेश का पालन किया था, तब उसे भगवत्कृपा प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं होती।

भक्ति के गुणों का सार है कृष्ण के प्रति विशुद्ध प्रेम की उत्पत्ति। इसकी प्राप्ति कृष्ण के विषय में मात्र श्रवण से की जा सकती है। भगवान् चैतन्य ने जो नियम स्वीकार किया था, वह था—यदि कोई भी मनुष्य कृष्ण द्वारा उद्घोषित दिव्य सन्देश को अथवा कृष्ण के विषय में विनीत भाव से सुनता है, तो उसमें धीरे-धीरे अमिश्रित प्रेम उत्पन्न होता है और इसी प्रेम से वह अजेय को भी जीत सकता है। मायावादी चिन्तक परमेश्वर से तदाकार होना चाहते हैं, किन्तु एक भक्त उस स्थिति से आगे निकल जाता है। भक्त न केवल गुणों में भगवान् जैसा हो जाता है, वरन् कभी-कभी वह भगवान् का पिता, माता या स्वामी हो जाता है। अर्जुन ने भी अपनी भक्ति द्वारा भगवान् कृष्ण को अपना सारथी बनाया; उन्होंने भगवान् को आज्ञा दी कि मेरा रथ यहाँ पर रखो और भगवान् ने आज्ञा का पालन किया। ये कतिपय उदाहरण हैं, जो बताते हैं कि किस प्रकार अजेय को जीत कर भक्त द्वारा उच्च पद प्राप्त किया जाता है।

 
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