श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 12: ध्रुव महाराज का भगवान् के पास जाना  »  श्लोक 43
 
 
श्लोक  4.12.43 
य: क्षत्रबन्धुर्भुवि तस्याधिरूढ-
मन्वारुरुक्षेदपि वर्षपूगै: ।
प्रसाद्य वैकुण्ठमवाप तत्पदम् ॥ ४३ ॥
षट्पञ्चवर्षो यदहोभिरल्पै:
 
शब्दार्थ
य:—जो; क्षत्र-बन्धु:—क्षत्रिय का पुत्र; भुवि—पृथ्वी पर; तस्य—ध्रुव का; अधिरूढम्—उच्च पद; अनु—पीछे; आरुरुक्षेत्— प्राप्त करने की इच्छा कर सकता है; अपि—भी; वर्ष-पूगै:—अनेक वर्षों के पश्चात्; षट्-पञ्च-वर्ष:—पाँच या छ: वर्ष का; यत्—जो; अहोभि: अल्पै:—कुछ दिनों बाद; प्रसाद्य—प्रसन्न करके; वैकुण्ठम्—भगवान्; अवाप—प्राप्त किया; तत्-पदम्— उस (भगवान्) का धाम ।.
 
अनुवाद
 
 ध्रुव महाराज ने पाँच-छह वर्ष की अवस्था में ही छह मास तक तपस्या करके उच्च पद प्राप्त कर लिया। ओह! कोई बड़े से बड़ा क्षत्रिय अनेक वर्षों की तपस्या के बाद भी ऐसा पद प्राप्त नहीं कर सकता।
 
तात्पर्य
 ध्रुव महाराज को यहाँ पर क्षत्र-बन्धु: कहा गया है, जिसका अर्थ है कि उन्हें क्षत्रिय के रूप में पूर्ण प्रशिक्षण नहीं मिला था, क्योंकि वे केवल पाँच वर्ष के थे, वे वयस्क नहीं हो पाये थे। किसी क्षत्रिय अथवा ब्राह्मण को शिक्षा ग्रहण करनी होती है। ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न बालक तुरन्त ब्राह्मण नहीं बन जाता; उसे शिक्षा तथा शुद्धि प्रक्रिया अपनानी होती है।

नारद मुनि को ध्रुव महाराज जैसे भक्त शिष्य पर गर्व था। उनके और भी अनेक शिष्य थे, किन्तु वे ध्रुव महाराज से विशेष रूप से प्रसन्न थे क्योंकि उन्होंने एक ही जीवनकाल में अपनी कठोर तपस्या से वैकुंठलोक प्राप्त कर लिया, जिसे अभी तक सारे ब्रह्माण्ड में किसी अन्य राज-पुत्र या राजर्षि ने प्राप्त नहीं किया था। यहाँ महान् राजा भरत का दृष्टान्त दिया जा सकता है। वे भी महान् भक्त थे, किन्तु उन्हें तीन जन्मों में वैकुण्ठलोक प्राप्त हो सका। पहले जन्म में, यद्यपि उन्होंने जंगल जाकर तपस्या की थी, किन्तु एक मृगशावक के प्रति इतने वत्सल हो गये थे कि उन्हें अगले जन्म में मृग का शरीर धारण करना पड़ा। यद्यपि उन्हें मृग का शरीर प्राप्त था, किन्तु उन्हें अपना आत्म-पद स्मरण रहा और सिद्धि के लिए उन्हें अगले जीवन तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। तीसरे जीवन में उन्होंने जड़ भरत के रूप में जन्म लिया। उस जीवन में वे समस्त सांसारिक बन्धनों से मुक्त हो सके और वैकुण्ठलोक को गये। ध्रुव महाराज के जीवन से यही शिक्षा मिलती है कि यदि कोई चाहे तो बिना बहुत से जन्मों की प्रतीक्षा के, वह एक ही जन्म में सिद्धि प्राप्त करके वैकुण्ठलोक जा सकता है। मेरे गुरु महाराज, श्री श्रीमद्भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद कहा करते थे कि उनका प्रत्येक शिष्य दूसरे जीवन में भक्ति करने की प्रतीक्षा किये बिना इसी जीवन में, वैकुण्ठलोक को प्राप्त कर सकेगा। उसे मात्र ध्रुव महाराज के ही समान गम्भीर तथा निष्ठावान होना पड़ेगा, तभी एक ही जन्म में वैकुण्ठलोक प्राप्त करना तथा भगवान् के धाम जाना सम्भव हो सकेगा।

 
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