श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 12: ध्रुव महाराज का भगवान् के पास जाना  »  श्लोक 44
 
 
श्लोक  4.12.44 
मैत्रेय उवाच
एतत्तेऽभिहितं सर्वं यत्पृष्टोऽहमिह त्वया ।
ध्रुवस्योद्दामयशसश्‍चरितं सम्मतं सताम् ॥ ४४ ॥
 
शब्दार्थ
मैत्रेय: उवाच—मैत्रेय ने कहा; एतत्—यह; ते—तुमसे; अभिहितम्—वर्णित; सर्वम्—सब कुछ; यत्—जो; पृष्ट: अहम्—मुझसे पूछा गया; इह—यहाँ; त्वया—तुम्हारे द्वारा; ध्रुवस्य—ध्रुव महाराज का; उद्दाम—उत्कर्षकारी; यशस:—जिसकी ख्याति; चरितम्—चरित्र; सम्मतम्—स्वीकृत; सताम्—भक्तों द्वारा ।.
 
अनुवाद
 
 मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा : हे विदुर, तुमने मुझसे ध्रुव महाराज की परम ख्याति तथा चरित्र के विषय में जो कुछ पूछा था वह सब मैंने विस्तार से बता दिया है। बड़े-बड़े साधु पुरुष तथा भक्त ध्रुव महाराज के विषय में सुनने की इच्छा रखते हैं।
 
तात्पर्य
 श्रीमद्भागवतम् का अर्थ है भगवान् के सम्बन्ध में हर तरह की जानकारी। चाहे हम भगवान् की लीलाओं को सुनें या उनके चरित्र, ख्याति, अथवा उनके भक्तों के कार्यकलापों को सुनें, वे सब एक हैं। नवदीक्षित भक्त भगवान् की लीलाओं को ही समझने का प्रयास करते हैं, वे उनके भक्तों के कार्यकलापों को सुनने में उतनी रुचि नहीं दिखाते, किन्तु असली भक्तों को ऐसा भेदभाव नहीं बरतना चाहिए। कभी-कभी अल्पज्ञानी श्रीकृष्ण के रास-नृत्य के विषय में सुनना चाहते हैं, किन्तु वे श्रीमद्भागवत के अन्य अंशों को सुनने की परवाह नहीं करते। ऐसे अनेक वृत्ति चलाने वाले भागवत वाचक हैं, जो सीधे श्रीमद्भागवत के रासलीला खण्डों में पहुँच जाते हैं, मानो भागवत के अन्य अंश बेकार हों। भेदभाव बरतना और भगवान् की रासलीला का एकाएक पढ़ा जाना आचार्यों द्वारा मान्य नहीं है। निष्ठावान भक्त को श्रीमद्भागवत का प्रत्येक अध्याय, यहाँ तक कि प्रत्येक शब्द को बड़े ही मनोयोग से पढऩा चाहिए क्योंकि प्रारम्भ के श्लोक बताते हैं कि यह वैदिक साहित्य का पक्वफल है। भक्तों को भागवत का एक शब्द भी नहीं छोडऩा चाहिए। अत: मैत्रेय मुनि ने बल दिया है कि भागवत परम भक्तों द्वारा सम्मत (सम्मतं सताम्) है।
 
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