श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 12: ध्रुव महाराज का भगवान् के पास जाना  »  श्लोक 45
 
 
श्लोक  4.12.45 
धन्यं यशस्यमायुष्यं पुण्यं स्वस्त्ययनं महत् ।
स्वर्ग्यं ध्रौव्यं सौमनस्यं प्रशस्यमघमर्षणम् ॥ ४५ ॥
 
शब्दार्थ
धन्यम्—धन देनेवाला; यशस्यम्—ख्याति देनेवाला; आयुष्यम्—आयु बढ़ानेवाला; पुण्यम्—पवित्र; स्वस्ति-अयनम्— कल्याण उत्पन्न करने वाला; महत्—महान; स्वर्ग्यम्—स्वर्ग प्राप्त करानेवाला; ध्रौव्यम्—या ध्रुवलोक; सौमनस्यम्—मन को भानेवाला; प्रशस्यम्—यशस्वी; अघ-मर्षणम्—समस्त पापों का नाश करनेवाला ।.
 
अनुवाद
 
 ध्रुव के आख्यान को सुनकर मनुष्य अपनी सम्पत्ति, यश तथा दीर्घायु की इच्छा को पूरा कर सकता है। यह इतना कल्याणकर है कि इसके श्रवणमात्र से मनुष्य स्वर्गलोक को जा सकता है, अथवा ध्रुवलोक को प्राप्त कर सकता है। देवता भी प्रसन्न होते हैं, क्योंकि यह आख्यान इतना यशस्वी है, इतना सशक्त है कि यह सारे पापकर्मों के फल का नाश करनेवाला है।
 
तात्पर्य
 इस संसार में अनेक प्रकार के लोग हैं, इनमें सभी शुद्ध भक्त नहीं होते। कुछ कर्मी हैं, जो प्रचुर सम्पत्ति की कामना करते हैं। कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो केवल यश चाहते हैं। कुछ स्वर्गलोक को या ध्रुवलोक को जाना चाहते हैं और कुछ देवताओं को प्रसन्न करके भौतिक लाभ उठाना चाहते हैं। मैत्रेय ने यहाँ पर सबों को ध्रुव महाराज का आख्यान सुनने की संस्तुति की है, जिससे वे वांछित लक्ष्य प्राप्त कर सकें। यह संस्तुति की जाती है कि भक्तों (अकाम), कर्मियों (सर्वकाम) तथा ज्ञानियों (मोक्ष-काम)—को भगवान् की पूजा करनी चाहिए जिससे उन्हें जीवन-लक्ष्य प्राप्त हो सके। इसी प्रकार यदि कोई भगवान् के भक्त के कार्य-कलापों के विषय में सुनता है, तो उसे भी वही फल मिलेगा। भगवान् तथा उनके शुद्ध भक्तों के कार्यों तथा आचरण में कोई अन्तर नहीं होता है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥