श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 12: ध्रुव महाराज का भगवान् के पास जाना  »  श्लोक 46
 
 
श्लोक  4.12.46 
श्रुत्वैतच्छ्रद्धयाभीक्ष्णमच्युतप्रियचेष्टितम् ।
भवेद्भक्तिर्भगवति यया स्यात्‍क्‍लेशसङ्‌क्षय: ॥ ४६ ॥
 
शब्दार्थ
श्रुत्वा—सुन कर; एतत्—यह; श्रद्धया—श्रद्धा से; अभीक्ष्णम्—बारम्बार; अच्युत—भगवान् को; प्रिय—प्रिय; चेष्टितम्— कार्यकलाप; भवेत्—उत्पन्न करता है; भक्ति:—भक्ति; भगवति—भगवान् में; यया—जिससे; स्यात्—हो सके; क्लेश—कष्टों का; सङ्क्षय:—पूर्ण विनाश ।.
 
अनुवाद
 
 जो भी ध्रुव महाराज के आख्यान को सुनता है और श्रद्धा तथा भक्ति के साथ उनके शुद्ध चरित्र को समझने का बारम्बार प्रयास करता है, वह शुद्ध भक्तिमय धरातल प्राप्त करता है औरे शुद्ध भक्ति करता है। ऐसे कार्यों से मनुष्य भौतिक जीवन के तीनों तापों को नष्ट कर सकता हैं।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर अच्युत-प्रिय शब्द महत्त्वपूर्ण है। ध्रुव महाराज का चरित्र तथा यश महान् है, क्योंकि ध्रुव भगवान् अच्युत को प्रिय हैं। जिस प्रकार भगवान् की लीलाओं तथा कार्य-कलापों को सुनना सुखद लगता है उसी प्रकार परम पुरुष प्रिय उनके भक्तों के विषय में भी सुनना सुखद और सामर्थ्यशाली है। यदि कोई इस अध्याय को पढक़र और सुन कर ध्रुव महाराज के विषय में निरन्तर पढ़े, तो उसे इच्छानुसार जीवन की परम सिद्धि प्राप्त हो सकती है और सबसे मुख्य बात तो यह है कि उसे एक महान् भक्त बनने का अवसर प्राप्त होता है। भक्त होने का अर्थ है भौतिक जीवन की समस्त दुखद अवस्थाओं का अन्त।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥