श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 12: ध्रुव महाराज का भगवान् के पास जाना  »  श्लोक 49-50
 
 
श्लोक  4.12.49-50 
पौर्णमास्यां सिनीवाल्यां द्वादश्यां श्रवणेऽथवा ।
दिनक्षये व्यतीपाते सङ्‌क्रमेऽर्कदिनेऽपि वा ॥ ४९ ॥
श्रावयेच्छ्रद्दधानानां तीर्थपादपदाश्रय: ।
नेच्छंस्तत्रात्मनात्मानं सन्तुष्ट इति सिध्यति ॥ ५० ॥
 
शब्दार्थ
पौर्णमास्याम्—पूर्णमासी के दिन; सिनीवाल्याम्—अमावस्या के दिन; द्वादश्याम्—एकादशी के एक दिन बाद, द्वादशी को; श्रवणे—श्रवण नक्षत्र के उदयकाल में; अथवा—या; दिन-क्षये—तिथि क्षय; व्यतीपाते—नाम का विशेष दिन; सङ्क्रमे—मास के अन्त में; अर्कदिने—रविवार को; अपि—भी; वा—अथवा; श्रावयेत्—सुनाना चाहिए; श्रद्दधानानाम्—श्रद्धालु श्रोताओं को; तीर्थ-पाद—भगवान् का; पद-आश्रय:—चरणकमल की शरण में आये; न इच्छन्—न चाहते हुए; तत्र—वहाँ; आत्मना—स्व के द्वारा; आत्मानम्—मन; सन्तुष्ट:—सन्तुष्ट; इति—इस प्रकार; सिध्यति—सिद्ध हो जाता है ।.
 
अनुवाद
 
 जिन व्यक्तियों ने भगवान् के चरण-कमलों की शरण ले रखी है उन्हें किसी प्रकार का पारिश्रमिक लिये बिना ही ध्रुव महाराज के इस आख्यान को सुनाना चाहिए। विशेष रूप से पूर्णमासी, अमावस्या, द्वादशी, श्रवण नक्षत्र के प्रकट होने पर, तिथिक्षय पर या व्यतीपात के अवसर पर, मास के अन्त में या रविवार को यह आख्यान सुनाया जाए। निस्सन्देह, इसे अनुकूल श्रोताओं के समक्ष सुनाएँ। इस प्रकार बिना किसी व्यावसायिक उद्देश्य के सुनाने पर वाचक तथा श्रोता दोनों सिद्ध हो जाते हैं।
 
तात्पर्य
 वृत्ति करने वाले वाचक अपने पेट की अग्नि को शान्त करने के लिए धन की माँग कर सकते हैं, किन्तु वे न तो कोई आध्यात्मिक प्रगति कर सकते हैं, न ही सिद्ध हो सकते हैं। इसीलिए जीविका कमाने के लिए व्यवसाय के रूप में श्रीमद्भागवत को सुनाना वर्जित है। केवल ऐसा व्यक्ति, जो भगवान् के चरणारविन्द में पूर्णत: समर्पित है, अपने व्यक्तिगत या परिवार के पालन के लिए भगवान् तथा उनके भक्तों की लीलाओं के वर्णन से पूर्ण श्रीमद्भागवत का वाचन करके सिद्धि प्राप्त कर सकता है। संक्षेप में यह विधि इस प्रकार है—श्रोता को भागवत-सन्देश में श्रद्धा होनी चाहिए और वाचक को भगवान् पर पूर्णत: आश्रित होना चाहिए। भागवत के कथा वाचन को व्यवसाय नहीं बनाना चाहिए। यदि यह ठीक से किया जाये तो न केवल वाचक को पूर्ण सन्तोष होता है, वरन् भगवान् भी वाचक तथा श्रोता दोनों से परम प्रसन्न होते हैं और इस प्रकार से दोनों ही श्रवण मात्र से भव-बन्धन से मुक्त हो जाते हैं।
 
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