तद्गच्छ ध्रुव भद्रं ते भगवन्तमधोक्षजम् ।
सर्वभूतात्मभावेन सर्वभूतात्मविग्रहम् ॥ ५ ॥
शब्दार्थ
तत्—अत:; गच्छ—आओ; ध्रुव—ध्रुव; भद्रम्—कल्याण हो; ते—तुम्हारा; भगवन्तम्—भगवान् को; अधोक्षजम्—भौतिक इन्द्रियों की विचार शक्ति के परे; सर्व-भूत—समस्त जीवात्माएँ; आत्म-भावेन—उन्हें एक सोच करके; सर्व-भूत—समस्त जीवात्माओं में; आत्म—परमात्मा; विग्रहम्—मूर्ति, विग्रह रूप ।.
अनुवाद
हे ध्रुव, आगे आओ। ईश्वर तुम्हारा कल्याण करें। भगवान् ही जो हमारी इन्द्रियों की विचार शक्ति से परे हैं, समस्त जीवात्माओं के परमात्मा हैं। इसलिए सभी जीवात्माएँ बिना किसी अन्तर के एक हैं। अत: तुम भगवान् के दिव्य रूप की सेवा प्रारम्भ करो, क्योंकि वे ही समस्त जीवों के अनन्तिम आश्रय हैं।
तात्पर्य
यहाँ पर विग्रहम् शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह इंगित करता है कि परम सत्य ही अन्तत: भगवान् हैं। इसकी व्याख्या ब्रह्म-संहिता में मिलती है। सच्चिदानन्द विग्रह: उनका रूप है, किन्तु यह किसी भी भौतिक रूप से भिन्न प्रकार का है। जीवात्माएँ तो परम रूप की तटस्था शक्ति हैं। इस प्रकार वे परम रूप से भिन्न नहीं हैं, किन्तु इसके साथ ही वे उस परम रूप के तुल्य भी नहीं हैं। यहाँ पर ध्रुव महाराज से परम रूप की सेवा करने को कहा गया है। इसमें अन्य व्यष्टि रूपों की सेवा सम्मिलत है। उदाहरणार्थ, वृक्ष का एक रूप है और जब वृक्ष की जड़ों में पानी डाला जाता है, तो अन्य रूप—पत्तियाँ, टहनियाँ, फूल तथा फल—भी स्वत: सिंच जाते हैं। यहाँ पर मायावादियों की यह धारणा कि परम सत्य सब कुछ है, इसलिए यह रूपहीन है, निरस्त हो जाती है। उल्टे यह पुष्ट होता है कि परम सत्य कारूप होता है (वह सगुण है) फिर भी वह सर्वव्यापी है। उससे स्वतंत्र कुछ भी नहीं है।
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