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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 12: ध्रुव महाराज का भगवान् के पास जाना  »  श्लोक 51
 
 
श्लोक  4.12.51 
ज्ञानमज्ञाततत्त्वाय यो दद्यात्सत्पथेऽमृतम् ।
कृपालोर्दीननाथस्य देवास्तस्यानुगृह्णते ॥ ५१ ॥
 
शब्दार्थ
ज्ञानम्—ज्ञान; अज्ञात-तत्त्वाय—सत्य से अपरिचितों को; य:—जो; दद्यात्—देता है; सत्-पथे—सत्य के मार्ग पर; अमृतम्— अमरत्व; कृपालो:—कृपालु; दीन-नाथस्य—दीनों के रक्षक; देवा:—देवतागण; तस्य—उसको; अनुगृह्णते—आशीर्वाद देते हैं ।.
 
अनुवाद
 
 ध्रुव महाराज का आख्यान अमरता प्राप्त करने के लिए परम ज्ञान है। जो लोग परम सत्य से अवगत नहीं हैं, उन्हें सत्य के मार्ग पर ले जाया जा सकता है। जो लोग दिव्य कृपा के कारण दीन जीवात्माओं के रक्षक बनने का उत्तरदायित्व ग्रहण करते हैं, उन्हें स्वत: ही देवताओं की कृपा तथा आशीर्वाद प्राप्त होते हैं।
 
तात्पर्य
 ज्ञानम् अज्ञात का अर्थ है ऐसा ज्ञान जिससे प्राय: समस्त संसार अनजान है। कोई भी नहीं जानता कि परम सत्य क्या है। भौतिक वादियों को अपनी शिक्षा, दार्शनिक चिन्तन तथा वैज्ञानिक ज्ञान पर गर्व रहता है, किन्तु वास्तव में कोई भी नहीं जानता कि परम सत्य क्या है। अत: मैत्रेय मुनि संस्तुति करते हैं कि परम सत्य (तत्त्व) के विषय में लोगों को अवगत कराने के लिए भक्तों को विश्व भर में श्रीमद्भागवत की शिक्षाओं का उपदेश देना चाहिए। श्रील व्यासदेव ने वैज्ञानिक ज्ञान के इस विशाल साहित्य का संकलन विशेषत: इसीलिए किया, क्योंकि लोग परम सत्य से सर्वथा अनजान होते हैं। श्रीमद्भागवत के प्रारम्भ में, प्रथम स्कंध में कहा गया है कि विद्वान् मुनि व्यासदेव ने इस महान् भागवत पुराण का संकलन जनता की अविद्या को रोकने के लिए किया। चूँकि लोग परम सत्य को नहीं जानते इसलिए नारद के आदेश से व्यासदेव ने इस श्रीमद्भागवत का संकलन किया। सामान्यत: लोग सत्य को जानना चाहते हैं, किन्तु वे चिन्तन द्वारा, बहुत हो सका तो निर्गुण ब्रह्म की संकल्पना तक पहुँच पाते हैं। किन्तु केवल थोड़े ही लोग भगवान् को वास्तव में जानते हैं।

श्रीमद्भागवत के वाचन का उद्देश्य लोगों को परम सत्य भगवान् के विषय में ज्ञान देना है। यद्यपि निर्गुण ब्रह्म, अन्तर्यामी परमात्मा तथा परम पुरुष में कोई मूलभूत अन्तर नहीं है, किन्तु जब तक परम पुरुष से संगति के स्तर पर न पहुंचा जाये, तब तक वास्तविक अमरता प्राप्त नहीं की जा सकती। भक्तियोग जो मनुष्य को परम पुरुष की संगति तक ले जाता है, वास्तव में अमरता है। शुद्ध भक्त पतित आत्माओं पर दयालु अथवा कृपालु होने के कारण सामान्य जनों पर दया करते हैं, और वे भागवत ज्ञान को सारे संसार में बाँटते फिरते हैं। दयालु भक्त को दीन-नाथ अर्थात् दीन एवं मूर्ख जनता का रक्षक कहते हैं। भगवान् कृष्ण भी दीननाथ या दीनबन्धु कहलाते हैं और उनके शुद्ध भक्त भी वही दीननाथ का पद ग्रहण करते हैं। जो दीननाथ अथवा श्रीकृष्ण के भक्त भक्तिमार्ग का उपदेश देते हैं, वे देवताओं के कृपापात्र बन जाते हैं। सामान्यत: लोग देवताओं की, विशेष रूप से शिव की, पूजा करने में रुचि रखते हैं जिससे उन्हें भौतिक लाभ हो सके, किन्तु शुद्ध भक्त को जो श्रीमद्भागवत में संस्तुत भक्ति के सिद्धान्तों का उपदेश देते रहते हैं, देवताओं को अलग से पूजने की आवश्यकता नहीं रह जाती। देवता स्वत: उनसे प्रसन्न होकर अपने सामर्थ्य के साथ समस्त आशीर्वाद देते हैं। जिस प्रकार पेड़ की जड़ सींचने से वृक्ष की पत्तियाँ तथा डालें स्वत: सिंच जाती हैं, उसी प्रकार भगवान् की शुद्ध भक्ति करने पर भगवान् की टहनियाँ तथा पत्तियाँ, जिन्हें देवता कहा जाता है, स्वत: भक्त से प्रसन्न हो जाते हैं और वे समस्त आशीर्वाद प्रदान करते हैं।

 
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