इदं मया तेऽभिहितं कुरूद्वहध्रुवस्य विख्यातविशुद्धकर्मण: ।
हित्वार्भक: क्रीडनकानि मातु-र्गृहं च विष्णुं शरणं यो जगाम ॥ ५२ ॥
शब्दार्थ
इदम्—यह; मया—मेरे द्वारा; ते—तुमको; अभिहितम्—वर्णित; कुरु-उद्वह—हे कुरुओं सर्वश्रेष्ठ; ध्रुवस्य—ध्रुव का; विख्यात—अत्यन्त प्रसिद्ध; विशुद्ध—अत्यन्त शुद्ध; कर्मण:—जिसके कर्म; हित्वा—त्यागकर; अर्भक:—बालक; क्रीडनकानि—खिलौने तथा खेलने की अन्य वस्तुएँ; मातु:—अपनी माता का; गृहम्—घर; च—भी; विष्णुम्—विष्णु की; शरणम्—शरण; य:—जो; जगाम—चला गया ।.
अनुवाद
ध्रुव महाराज के दिव्य कार्य सारे संसार में विख्यात हैं और वे अत्यन्त शुद्ध हैं। बचपन में ध्रुव महाराज ने सभी खिलौने तथा खेल की वस्तुओं का तिरस्कार किया, अपनी माता का संरक्षण त्यागा और भगवान् विष्णु की शरण ग्रहण की। अत: हे विदुर, मैं इस आख्यान को समाप्त करता हूँ, क्योंकि तुमसे इसके बारे में विस्तार से कह चुका हूँ।
तात्पर्य
चाणक्य पंडित ने कहा है कि यह जीवन हर एक के लिए लघु है, किन्तु यदि कोई ढंग से कार्य करे तो उसका यश पीढिय़ों तक चलता है। जिस प्रकार भगवान् कृष्ण सदैव विख्यात हैं, उसी प्रकार उनके भक्त की ख्याति भी सदैव बनी रहती है। अत: ध्रुव महाराज के कार्यकलापों का वर्णन करते हुए दो विशिष्ट शब्दों का व्यवहार हुआ है—विख्यात तथा विशुद्ध। ध्रुव महाराज द्वारा कम उम्र में गृहत्याग करना और जंगल में भगवान् की शरण ग्रहण करना—ये इस संसार के अद्वितीय उदाहरण हैं।
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के चतुर्थ स्कंध के अन्तर्गत “ध्रुव महाराज का भगवान् के पास जाना” नामक बारहवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
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