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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 12: ध्रुव महाराज का भगवान् के पास जाना  »  श्लोक 6
 
 
श्लोक  4.12.6 
भजस्व भजनीयाङ्‌घ्रि मभवाय भवच्छिदम् ।
युक्तं विरहितं शक्त्या गुणमय्यात्ममायया ॥ ६ ॥
 
शब्दार्थ
भजस्व—सेवा में लगो; भजनीय—पूजा के योग्य; अङ्घ्रिम्—उनको जिनके चरण कमल; अभवाय—संसार से उद्धार के लिए; भव-छिदम्—जो भौतिक बन्धन की ग्रंथि को काटता है; युक्तम्—संलग्न; विरहितम्—पृथक्, विलग; शक्त्या—उसकी शक्ति को; गुण-मय्या—त्रिगुणों से युक्त; आत्म-मायया—अपनी अकल्पनीय शक्ति से ।.
 
अनुवाद
 
 अत: तुम अपने आपको भगवान् की भक्ति में पूर्णरूपेण प्रवृत्त करो क्योंकि वे ही सांसारिक बन्धन से हमें छुटकारा दिला सकते हैं। अपनी भौतिक शक्ति में आसक्त रहकर भी वे उसके क्रियाकलापों से विलग रहते हैं। भगवान् की अकल्पनीय शक्ति से ही इस भौतिक जगत में प्रत्येक घटना घटती है।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर पिछले श्लोक से आगे विशेष रूप से उल्लेख है कि ध्रुव महाराज को भक्ति में प्रवृत्त होना चाहिए। भक्ति कभी भगवान् के निर्गुण पक्ष की नहीं हो सकती। जब भी भजस्व शब्द आता है, तो सेवक, सेवा तथा सेव्य ये तीनों होने चाहिए। भगवान् सेव्य हैं, सेवा करनेवाला सेवक है और प्रसन्न करने के लिए किये गये कार्यकलाप ही सेवा हैं। इस श्लोक में जो दूसरी बात कही गई है, वह यह कि केवल भगवान् की ही सेवा करनी चाहिए, अन्य किसी की नहीं। इसकी पुष्टि भगवद्गीता में हुई है (मामेकं शरणं व्रज)। देवताओं की सेवा करने की आवश्यकता नहीं है। वे परमेश्वर के हाथ पाँव के समान हैं। जब परमेश्वर की सेवा की जाती है, तो उनके हाथ-पाँव की भी सेवा हो लेती है। अलग से सेवा करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। जैसाकि भगवद्गीता (१२.७) में कहा गया है—तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्। इसका अर्थ यह हुआ कि भक्त का पक्ष लेने के लिए भगवान् उसके अन्दर से ऐसा निर्देश देते हैं कि अन्तत: वह भवबन्धन से मुक्त हो जाता है। परमेश्वर के अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा नहीं है, जो जीवात्मा को इस जगत के बन्धन से छुड़ा सके। भौतिक शक्ति तो भगवान् की अनेक शक्तियों में से एक का प्राकट्य है (परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते)। यही भौतिक शक्ति भगवान् की शक्तियों में से एक है, जिस प्रकार उष्मा तथा प्रकाश अग्नि की शक्तियाँ हैं। भौतिक शक्ति परमेश्वर से भिन्न नहीं, किन्तु साथ ही परमेश्वर को इस शक्ति से कोई सरोकार नहीं रहता। जीवात्मा तो तटस्था शक्ति से युक्त है और वह भौतिक संसार पर प्रभुत्व जताने की अपनी इच्छा के अनुसार भौतिक शक्ति में फँसा हुआ है। भगवान् इससे विलग रहता है, किन्तु जब वही जीवात्मा उनकी भक्ति करने लगता है, तो वह उनमें आसक्त हो जाता है। यह स्थिति युक्तम् कहलाती है। भक्तों के लिए भगवान् भौतिक शक्ति में भी विद्यमान रहते हैं। यह भगवान् की अकल्पनीय शक्ति है। भौतिक शक्ति प्रकृति के तीनों गुणों में कार्य करती है, जिससे इस जगत के कार्य तथा कारण उत्पन्न होते हैं। जो भक्त नहीं हैं, वे ऐसे कार्यकलापों में लगे रहते हैं, जबकि भक्त लोग, जो ईश्वर से युक्त रहते हैं, भौतिक शक्ति के कार्य-कारण से मुक्त हो जाते हैं। इसीलिए यहाँ पर भगवान् को भवच्छिदम् कहा गया है, अर्थात् वे जो इस संसार के बन्धन से छुटकारा दिला सकते हैं।
 
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