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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 12: ध्रुव महाराज का भगवान् के पास जाना  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  4.12.7 
वृणीहि कामं नृप यन्मनोगतं
मत्तस्त्वमौत्तानपदेऽविशङ्कित: ।
वरं वरार्होऽम्बुजनाभपादयो-
रनन्तरं त्वां वयमङ्ग शुश्रुम ॥ ७ ॥
 
शब्दार्थ
वृणीहि—माँगो; कामम्—इच्छा; नृप—हे राजा; यत्—जो कुछ; मन:-गतम्—तुम्हारे मन के भीतर है; मत्त:—मुझसे; त्वम्— तुम; औत्तानपदे—हे महाराज उत्तानपाद के पुत्र; अविशङ्कित:—बिना हिचक के; वरम्—वरदान; वर-अर्ह:—वर प्राप्त करने के योग्य; अम्बुज—कमल; नाभ—जिसकी नाभि; पादयो:—उनके चरमकमलों पर; अनन्तरम्—निरन्तर; त्वाम्—तुमको; वयम्—हमने; अङ्ग—हे ध्रुव; शुश्रुम—सुना है ।.
 
अनुवाद
 
 हे महाराज उत्तानपाद के पुत्र, ध्रुव महाराज, हमने सुना है कि तुम कमलनाभ भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में निरन्तर लगे रहते हो। अत: तुम हमसे समस्त आशीर्वाद लेने के पात्र हो। अत: बिना हिचक के जो तुम वर माँगना चाहो माँग सकते हो।
 
तात्पर्य
 उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव महाराज पहले से ही सारे विश्व में भगवान् के परमभक्त के रूप में विख्यात हो चुके थे। वे भगवान् के चरणकमलों का निरन्तर ध्यान करते थे। ऐसा शुद्ध, कल्मषरहित भक्त देवताओं द्वारा प्रदान किये जाने वाला कोई भी आशीर्वाद ग्रहण करने का पात्र होता है। ऐसे आशीर्वादों के लिए उसे अलग से देवताओं की पूजा नहीं करनी होती। कुबेर देवों के धनपति हैं और वे स्वयं ध्रुव महाराज को मुँह-माँगा वरदान देने को कह रहे हैं। अत: श्रील बिल्वमंगल ठाकुर ने कहा है कि जो लोग भगवान् की सेवा में लगे रहते हैं, उनके लिए समस्त भौतिक आशीर्वाद दासियों के समान प्रतीक्षा करते रहते हैं। भक्त के द्वार पर किसी भी समय मुक्ति देवी मुक्ति अथवा इससे भी अधिक प्रदान करने के लिए प्रतीक्षा करती रहती है। अत: भक्त होना सम्माननीय पद है। भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति द्वारा मनुष्य संसार के समस्त वरदान अनायास ही प्राप्त कर सकता है। कुबेर ने ध्रुव महाराज से कहा कि उन्होंने सुन रखा है कि ध्रुव सदैव समाधि में रहते हैं या भगवान् के चरणारविन्द का चिन्तन करते रहते हैं। दूसरे शब्दों में, उन्हें यह पता था कि ध्रुव महाराज को तीनों भौतिक लोकों में किसी वस्तु की इच्छा नहीं थी। उन्हें पता था कि वे भगवान् के चरणारविन्द को स्मरण करते रहने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं माँगेंगे।
 
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