मैत्रेय उवाच
स राजराजेन वराय चोदितो
ध्रुवो महाभागवतो महामति: ।
हरौ स वव्रेऽचलितां स्मृतिं यया
तरत्ययत्नेन दुरत्ययं तम: ॥ ८ ॥
शब्दार्थ
मैत्रेय: उवाच—मैत्रेय ऋषि ने कहा; स:—वह; राज-राजेन—राजाओं के राजा (कुबेर) द्वारा; वराय—आशीर्वाद के लिए; चोदित:—माँगने पर; ध्रुव:—ध्रुव महाराज; महा-भागवत:—प्रथम कोटि के भक्त; महा-मति:—सर्वाधिक बुद्धिमान या विचारवान; हरौ—भगवान् के प्रति; स:—उसने; वव्रे—माँगा; अचलिताम्—स्थिर, अखण्ड; स्मृतिम्—स्मृति; यया—जिससे; तरति—पार करता है; अयत्नेन—बिना कठिनाई के; दुरत्ययम्—अलंघ्य, दुस्तर; तम:—अंधकार, अज्ञान ।.
अनुवाद
महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा : हे विदुर, जब यक्षराज कुबेर ने ध्रुव महाराज से वर माँगने के लिए कहा तो उस परम विद्वान् शुद्ध भक्त, बुद्धिमान तथा विचारवान् राजा ध्रुव ने यही याचना की कि भगवान् में उनकी अखंड श्रद्धा और स्मृति बनी रहे, क्योंकि इस प्रकार से मनुष्य अज्ञान के सागर को सरलता से पार कर सकता है, यद्यपि उसे पार करना अन्यों के लिए अत्यन्त दुस्तर है।
तात्पर्य
वैदिक अनुष्ठानों के दक्ष अनुयायियों के विचार से वर कई प्रकार के होते हैं जिनका सम्बन्ध धार्मिकता, आर्थिक उन्नति, इन्द्रियतृप्ति तथा मुक्ति से हो सकता है। इन चारों नियमों को चतुर्वर्ग कहते हैं। इन सारे चतुर्वर्गों में से मोक्ष के वर को सर्वोपरि माना जाता है। मानव के लिए भौतिक अज्ञान को पार करने में समर्थ होने को सर्वोच्च पुरुषार्थ अर्थात् वरदान माना जाता है। किन्तु ध्रुव महाराज तो ऐसा वर चाहते थे, जो उच्चतम पुरुषार्थ अर्थात् मोक्ष से भी बढक़र हो। वे तो ऐसा वर चाहते थे जिससे वे भगवान् के चरणकमलों का निरन्तर स्मरण करते रहें। जीवन की यह अवस्था पंचम पुरुषार्थ कहलाती है। जब भक्त भगवान् की निरन्तर भक्ति करता हुआ इस पंचम पुरुषार्थ पद पर पहुँचता है, तो उसकी दृष्टि में चतुर्थ पुरुषार्थ अर्थात् मुक्ति तुच्छ लगने लगती है। इस प्रसंग में श्रील प्रबोधानन्द सरस्वती ने कहा है कि भक्त के लिए मुक्ति तो जीवन की नारकीय अवस्था है; जहाँ तक इन्द्रियतृप्ति का प्रश्न है, जो स्वर्गलोक में सुलभ है, भक्त इसे आकाश-पुष्प ही समझता है, जिसका जीवन में कोई मूल्य नहीं है। योगी अपनी इन्द्रियों को वश में करने का यत्न करता है, किन्तु भक्त के लिए इन्द्रिय-संयम कुछ भी कठिन नहीं है। इन्द्रियों की तुलना सर्पों से की गई है, किन्तु भक्तों के लिए ये सर्प विषदन्त से रहित हैं। इस प्रकार संसार में जितने भी प्रकार के वर हो सकते हैं उनका विश्लेषण श्रील प्रबोधानन्द सरस्वती ने किया है और यह स्पष्ट घोषणा की है कि शुद्ध भक्त के लिए उनका कोई महत्त्व नहीं है। ध्रुव महाराज महाभागवत भी थे। उनकी भक्त-बुद्धि अतीव महान् थी (महा-मति:)। जब तक कोई अत्यन्त बुद्धिमान नहीं होता वह भक्तियोग अथवा कृष्णभावनामृत नहीं अपना सकता। अत: स्वाभाविक है कि प्रथम श्रेणी का भक्त प्रथम श्रेणी का बुद्धिमान व्यक्ति होता है और इसीलिए वह इस संसार में किसी भी प्रकार के वरदान में रुचि नहीं रखता। ध्रुव महाराज को राजाधिराज, देवताओं के धनपति कुबेर ने वरदान मांगने को कहा। उनका एकमात्र कार्य मनुष्यों को अपार सम्पत्ति प्रदान करना है। उन्हें राजाओं का राजा कहा गया है, क्योंकि जब तक कुबेर आशीष नहीं देते, कोई राजा नहीं बन सकता। राजाओं के राजा ने स्वयं ध्रुव महाराज को प्रभूत सम्पत्ति मांगने को कहा, किन्तु उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया। इसलिए उन्हें महामति: अर्थात् अत्यन्त विचारवान या अत्यधिक बुद्धिमान कहा गया है।
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