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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 13: ध्रुव महाराज के वंशजों का वर्णन  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  4.13.10 
जडान्धबधिरोन्मत्तमूकाकृतिरतन्मति: ।
लक्षित: पथि बालानां प्रशान्तार्चिरिवानल: ॥ १० ॥
 
शब्दार्थ
जड—मूर्ख; अन्ध—अन्धा; बधिर—बहरा; उन्मत्त—पागल; मूक—गूँगा; आकृति:—आकृति; अ-तत्—उस प्रकार का नहीं; मति:—बुद्धि; लक्षित:—देखा जाता था; पथि—मार्ग पर; बालानाम्—अल्पज्ञों द्वारा; प्रशान्त—शान्त; अर्चि:—ज्वालाओं से युक्त; इव—सदृश; अनल:—अग्नि ।.
 
अनुवाद
 
 अल्पज्ञानी राह चलते लोगों को उत्कल मूर्ख, अन्धा, गूँगा, बहरा तथा पागल सा प्रतीत होता था, किन्तु वह वास्तव में ऐसा था नहीं। वह उस अग्नि के समान बना रहा जो राख से ढकी होने के कारण लपटों से रहित होती है।
 
तात्पर्य
 विरोधाभासों, उलझनों तथा भौतिकतावादी व्यक्तियों द्वारा पैदा की जानेवाली प्रतिकूल परिस्थितियों से अपने को बचाने के लिए जड़भरत या उत्कल जैसे परम साधु पुरुष चुपचाप रहते हैं। जो अल्पज्ञानी हैं, वे ऐसे साधु पुरुषों को पागल, बहरा या गूँगा समझते हैं। वास्तव में सिद्ध-भक्त ऐसे लोगों से, जो भक्तिमय जीवन नहीं बिताते, बातचीत करने से कतराते हैं, किन्तु जो भक्ति करते हैं उनसे वे मित्रतापूर्वक बोलते हैं और जो अबोध हैं उनको प्रबद्ध करने के लिए बोलते हैं। एक तरह से सारा संसार अभक्तों से भरा पड़ा है, अत: एक प्रकार का परम सिद्ध भक्त भजनानन्दी कहलाता है। किन्तु जो गोष्ठ्यानन्दी हैं, वे भक्तों की संख्या बढ़ाने के लिए उपदेश देते हैं। किन्तु ऐसे उपदेशक भी उन विरोधी तत्त्वों से बचते रहते हैं, जो आध्यात्मिक जीवन के प्रतिकूल होते हैं।
 
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