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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 13: ध्रुव महाराज के वंशजों का वर्णन  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  4.13.21 
विदुर उवाच
तस्य शीलनिधे: साधोर्ब्रह्मण्यस्य महात्मन: ।
राज्ञ: कथमभूद्दुष्टा प्रजा यद्विमना ययौ ॥ २१ ॥
 
शब्दार्थ
विदुर: उवाच—विदुर ने कहा; तस्य—उसका (अंग का); शील-निधे:—उत्तम गुणों का आगार; साधो:—सन्तु पुरुष; ब्रह्मण्यस्य—ब्राह्मण सभ्यता का प्रेमी; महात्मन:—महापुरुष; राज्ञ:—राजा का; कथम्—किस तरह; अभूत्—था; दुष्टा—बुरा; प्रजा—पुत्र; यत्—जिससे; विमना:—अन्यमनस्क; ययौ—छोड़ दिया ।.
 
अनुवाद
 
 विदुर ने मैत्रेय से पूछा : हे ब्राह्मण, राजा अंग तो अत्यन्त भद्र था। वह अत्यन्त चरित्रवान तथा साधु पुरुष था और ब्राह्मण-संस्कृति का प्रेमी था। तो फिर इतने महान् पुरुष के वेन जैसा दुष्ट पुत्र कैसे उत्पन्न हुआ जिससे वह अपने राज्य के प्रति अन्यमनस्क हो उठा और उसे छोड़ दिया?
 
तात्पर्य
 आशा की जाती है कि पारिवारिक जीवन में मनुष्य अपने पिता, माता, पत्नी तथा बच्चों के साथ सुखपूर्वक रहेगा, किन्तु किन्हीं परिस्थितियों में कोई पिता, माता, संतति अथवा पत्नी शत्रु बन जाते हैं। चाणक्य पंडित ने कहा है कि जो पिता अत्यधिक ऋणी होता है, वह शत्रु है, जो माता दुसरी शादी कर लेती है, वह भी शत्रु है, जो पत्नी अत्यन्त सुन्दर होती है, वह भी शत्रु है और जो पुत्र मूर्ख एवं निकम्मा हो वह भी शत्रु होता है। इस प्रकार जब परिवार का कोई सदस्य शत्रु बन जाता है, तो पारिवारिक जीवन बिताना या गृहस्थ बने रहना कठिन हो जाता है। सामान्यत: भौतिक जगत में ऐसी परिस्थितियाँ आती रहती हैं। इसीलिए वैदिक संस्कृति के अनुसार मनुष्य को पचासवें वर्ष के बाद अपने परिवार वालों से विदा ले लेनी चाहिए जिससे कि उसका शेष जीवन कृष्ण-चेतना की खोज में लगाया जा सके।
 
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