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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 13: ध्रुव महाराज के वंशजों का वर्णन  »  श्लोक 22
 
 
श्लोक  4.13.22 
किं वांहो वेन उद्दिश्य ब्रह्मदण्डमयूयुजन् ।
दण्डव्रतधरे राज्ञि मुनयो धर्मकोविदा: ॥ २२ ॥
 
शब्दार्थ
किम्—क्यों; वा—भी; अंह:—पापकर्म; वेने—वेन को; उद्दिश्य—देखकर; ब्रह्म-दण्डम्—ब्राह्मण का शाप; अयूयुजन्— दण्डित करना चाहा; दण्ड-व्रत-धरे—जो दण्ड के डण्डे को धारण करता है; राज्ञि—राजा को; मुनय:—मुनिगण; धर्म- कोविदा:—धर्म से पूरी तरह ज्ञात ।.
 
अनुवाद
 
 विदुर ने आगे पूछा कि महान् धर्मात्मा ऋषियों ने राजा वेन को, जो स्वयं दण्ड देनेवाले दण्ड को धारण करनेवाला था, क्योंकर शाप देना चाहा और इस प्रकार उसे सबसे बड़ा दण्ड (ब्रह्मशाप) दे डाला?
 
तात्पर्य
 ऐसा ज्ञात है कि राजा हर एक को दण्ड दे सकता है, किन्तु इस प्रसंग में प्रतीत होता है कि ऋषियों ने उल्टे राजा को दण्डित किया। अवश्य ही राजा ने कुछ गम्भीर कार्य किया होगा अन्यथा ऋषियों ने, जिनसे अत्यधिक सहिष्णु होने की अपेक्षा की जाती है, धार्मिक चेतना में अग्रसर होने पर भी उसे क्यों दण्डित किया? यह भी प्रतीत होता है कि राजा ब्राह्मण संस्कृति से पृथक् सत्ता नहीं रखता था। राजा के ऊपर ब्राह्मणों का नियंत्रण रहता था और आवश्यकता पडऩे पर वे राजा को किसी हथियार से नहीं, वरन् ब्रह्मशाप के मंत्र से पदच्युत कर सकते थे या उसका वध कर सकते थे। ब्राह्मण इतने शक्तिशाली थे कि उनके शाप से लोग तुरन्त मर जाते थे।
 
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