श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 13: ध्रुव महाराज के वंशजों का वर्णन  »  श्लोक 24
 
 
श्लोक  4.13.24 
एतदाख्याहि मे ब्रह्मन् सुनीथात्मजचेष्टितम् ।
श्रद्दधानाय भक्ताय त्वं परावरवित्तम: ॥ २४ ॥
 
शब्दार्थ
एतत्—ये सब; आख्याहि—वर्णन करें; मे—मुझसे; ब्रह्मन्—हे परम ब्राह्मण; सुनीथा-आत्मज—सुनीथा के पुत्र वेन का; चेष्टितम्—कार्यकलाप; श्रद्दधानाय—श्रद्धालु, आज्ञाकारी; भक्ताय—अपने भक्त को; त्वम्—तुम; पर-अवर—भूत तथा भविष्य सहित; वित्-तम:—सुपरिचित ।.
 
अनुवाद
 
 विदुर ने मैत्रेय से अनुरोध किया : हे ब्राह्मण, आप भूत तथा भविष्य के समस्त विषयों में पारंगत हैं। अत: मैं आपसे राजा वेन के समस्त कार्यकलापों को सुनना चाहता हूँ। मैं आपका श्रद्धालु भक्त हूँ, अत: आप इसे विस्तार से कहें।
 
तात्पर्य
 विदुर ने मैत्रेय को अपना गुरु मान रखा था। शिष्य सदैव अपने गुरु से प्रश्न करता है और गुरु प्रश्नों का उत्तर देता है, बशर्ते कि शिष्य भद्र हो तथा समर्पित हो। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने कहा है कि जिस पर गुरु की कृपा होती है उस पर ईश्वर की कृपा होती है। जब तक शिष्य अत्यन्त विनीत और समर्पित नहीं होता, गुरु दिव्य ज्ञान के सभी रहस्य प्रकट करने के लिए तत्पर नहीं होता। जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है गुरु से ज्ञान प्राप्त करने की विधि में समर्पण, उत्सुकता तथा सेवा सम्मिलित हैं।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥