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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 13: ध्रुव महाराज के वंशजों का वर्णन  »  श्लोक 27
 
 
श्लोक  4.13.27 
राजन् हवींष्यदुष्टानि श्रद्धयासादितानि ते ।
छन्दांस्ययातयामानि योजितानि धृतव्रतै: ॥ २७ ॥
 
शब्दार्थ
राजन्—हे राजा; हवींषि—यज्ञ की बलि, होमसामग्री; अदुष्टानि—दूषित नहीं; श्रद्धया—श्रद्धा तथा सावधानी सहित; आसादितानि—एकत्र की गई; ते—तुम्हारे; छन्दांसि—मंत्र; अयात-यामानि—न्यून नहीं; योजितानि—विधिपूर्वक सम्पन्न; धृत व्रतै:—सुपात्र ब्राह्मणों द्वारा ।.
 
अनुवाद
 
 हे राजन्, हमें ज्ञात है कि आपने अत्यन्त श्रद्धा तथा सावधानी से यज्ञ की सारी सामग्री एकत्रित की है और वह दूषित नहीं है। हमारे द्वारा उच्चरित वैदिक मंत्रों में भी किसी प्रकार की कमी नहीं है क्योंकि यहां उपस्थित सभी ब्राह्मण तथा पुरोहित योग्य है और समस्त कृत्यों को ठीक से कर भी रहे हैं।
 
तात्पर्य
 परम्परा से ही वेदविद् ब्राह्मण लोग वैदिक मंत्रों का ठीक से उच्चारण करते हैं। मंत्र-पद तथा संस्कृत शब्द दोनों का सही-सही उच्चारण होना चाहिए, अन्यथा मंत्र सफल नहीं होगा। इस युग में ब्राह्मण लोग न तो संस्कृत भाषा में दक्ष हैं और न उनका व्यावहारिक जीवन शुद्ध है। किन्तु हरे कृष्ण मंत्र का जप करने से यज्ञ करने से प्राप्त होनेवाला सर्वोच्च लाभ प्राप्त हो सकता है। यदि हरे कृष्ण मंत्र का ठीक से उच्चारण न भी किया जाये तो भी इसमें इतनी शक्ति है कि जपकर्ता को लाभ होता है।
 
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>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥