हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 13: ध्रुव महाराज के वंशजों का वर्णन  »  श्लोक 28
 
 
श्लोक  4.13.28 
न विदामेह देवानां हेलनं वयमण्वपि ।
यन्न गृह्णन्ति भागान् स्वान् ये देवा: कर्मसाक्षिण: ॥ २८ ॥
 
शब्दार्थ
—नहीं; विदाम—जान सकना; इह—इस प्रसंग में; देवानाम्—देवताओं का; हेलनम्—तिरस्कार, उपेक्षा; वयम्—हम; अणु—सूक्ष्म; अपि—भी; यत्—जिससे; —नहीं; गृह्णन्ति—स्वीकार करते हैं; भागान्—भाग, अंश; स्वान्—अपने-अपने; ये—जो; देवा:—देवतागण; कर्म-साक्षिण:—यज्ञ के साक्षी ।.
 
अनुवाद
 
 हे राजन्, हमें ऐसा कोई कारण नहीं दिखता जिससे देवतागण अपने को किसी प्रकार से अपमानित या उपेक्षित समझ सकें, तो भी यज्ञ के साक्षी देवता अपना भाग ग्रहण नहीं कर रहे हैं। हमारी समझ में नहीं आता कि ऐसा क्यों है?
 
तात्पर्य
 यहाँ पर यह इंगित किया गया है कि यदि पुरोहित किसी प्रकार की असावधानी बरतता है, तो देवता यज्ञ का अपना भाग ग्रहण नहीं करते। इसी प्रकार भक्ति में होनेवाले अपराध सेवा- अपराध कहलाते हैं। जो लोग मन्दिर में राधाकृष्ण-विग्रह की पूजा करते हैं उन्हें ऐसे अपराधों से बचना चाहिए। इन सेवा-अपराधों का वर्णन भक्तिरसामृत सिन्धु पुस्तक में मिलेगा। यदि हम विग्रह पर केवल दिखावे के रूप में सेवा करते भेंट चढ़ाते हैं और सेवा-अपराधों पर ध्यान नहीं देते तो राधाकृष्ण ऐसे अभक्तों की भेंट ग्रहण नहीं करते। अत: मन्दिर में पूजा करनेवाले भक्तों को अपनी विधियाँ नहीं बनानी चाहिए, वरन् स्वच्छता के विधि विधानों का ध्यान रखना चाहिए, तभी भेंटें स्वीकार की जाएँगी।
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥