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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 13: ध्रुव महाराज के वंशजों का वर्णन  »  श्लोक 30
 
 
श्लोक  4.13.30 
नागच्छन्त्याहुता देवा न गृह्णन्ति ग्रहानिह ।
सदसस्पतयो ब्रूत किमवद्यं मया कृतम् ॥ ३० ॥
 
शब्दार्थ
—नहीं; आगच्छन्ति—आ रहे हैं; आहुता:—आमंत्रित किये जाने पर; देवा:—देवगण; —नहीं; गृह्णन्ति—स्वीकार कर रहे हैं; ग्रहान्—भाग; इह—इस यज्ञ में; सदस:-पतय:—हे पुरोहितो; ब्रूत—कृपया बताएँ; किम्—क्या; अवद्यम्—अपराध; मया—मेरे द्वारा; कृतम्—किया गया ।.
 
अनुवाद
 
 राजा अंग ने पुरोहित वर्ग को सम्बोधित करते हुए पूछा : हे पुरोहितो, आप कृपा करके बताएँ कि मुझसे कौन सा अपराध हुआ है। आमंत्रित होने पर भी देवता न तो यज्ञ में सम्मिलित हो रहे हैं और न अपना भाग ग्रहण कर रहे हैं।
 
 
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