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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 13: ध्रुव महाराज के वंशजों का वर्णन  »  श्लोक 31
 
 
श्लोक  4.13.31 
सदसस्पतय ऊचु:
नरदेवेह भवतो नाघं तावन् मनाक्स्थितम् ।
अस्त्येकं प्राक्तनमघं यदिहेद‍ृक् त्वमप्रज: ॥ ३१ ॥
 
शब्दार्थ
सदस:-पतय: ऊचु:—प्रधान पुरोहित ने कहा; नर-देव—हे राजन्; इह—इस जीवन में; भवत:—आपका; —नहीं; अघम्— पापकर्म; तावत् मनाक्—रंचमात्र भी; स्थितम्—स्थित; अस्ति—है; एकम्—एक; प्राक्तनम्—पूर्वजन्म में; अघम्—पापकर्म; यत्—जिससे; इह—जीवन में; ईदृक्—इस प्रकार; त्वम्—तुम; अप्रज:—पुत्रहीन ।.
 
अनुवाद
 
 प्रधान पुरोहित ने कहा : हे राजन्, हमें तो आपके इस जीवन में आप के मन से किया गया भी कोई भी पापकर्म नहीं दिखता, अत: आप तनिक भी अपराधी नहीं हैं। किन्तु हमें दिखता है कि आपने पूर्वजन्म में पापकर्म किये हैं जिनके कारण समस्त गुणों के होते हुए भी आप पुत्रहीन हैं।
 
तात्पर्य
 विवाह करने का उद्देश्य पुत्र उत्पन्न करना होता है, क्योंकि पिता तथा पूर्वज यदि नारकीय बद्धजीवन में पड़े हो उससे उबारने के लिए पुत्र अनिवार्य है। इसीलिए चाणक्य पण्डित ने कहा है— पुत्रहीनं गृहं शून्यम्—पुत्र के बिना विवाहित जीवन निन्दनीय है। राजा अंग अत्यन्त पवित्र राजा थे, किन्तु अपने पूर्व पापकर्मों के कारण उन्हें पुत्र प्राप्त नहीं हुआ। अत: यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि किसी के पुत्र उत्पन्न नहीं होता तो यह उसके पूर्व पापमय जीवन का फल है।
 
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