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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 13: ध्रुव महाराज के वंशजों का वर्णन  »  श्लोक 35
 
 
श्लोक  4.13.35 
इति व्यवसिता विप्रास्तस्य राज्ञ: प्रजातये ।
पुरोडाशं निरवपन् शिपिविष्टाय विष्णवे ॥ ३५ ॥
 
शब्दार्थ
इति—इस प्रकार; व्यवसिता:—निश्चय करके; विप्रा:—समस्त ब्राह्मण; तस्य—उसके; राज्ञ:—राजा के; प्रजातये—पुत्र-प्राप्ति के उद्देश्य से; पुरोडाशम्—यज्ञ की सामग्री; निरवपन्—प्रदान की; शिपि-विष्टाय—यज्ञ की अग्नि में स्थित, भगवान् को; विष्णवे—भगवान् विष्णु को ।.
 
अनुवाद
 
 इस प्रकार राजा अंग को पुत्र प्राप्ति कराने के लिए उन्होंने घट-घट वासी भगवान् विष्णु को आहुतियाँ अर्पित करने का निश्चय किया।
 
तात्पर्य
 याज्ञिक अनुष्ठानों के अनुसार कभी-कभी यज्ञस्थल पर पशुओं की बलि दी जाती है। ऐसे पशुओं की बलि उन्हें मारने के लिए नहीं अपितु उन्हें नया जीवन प्रदान करने के लिए दी जाती है। ऐसा कर्म प्रयोगस्वरूप होता था जिससे यह देखा जा सके कि वैदिक मंत्रों का सही-सही उच्चारण हो रहा है या नहीं। कभी-कभी चिकित्सा-प्रयोगशालाओं में छोटे-छोटे पशुओं को ओषधीय प्रभाव जानने के लिए मारा जाता है। चिकित्सालय में पशुओं को पुन: जिलाया नहीं जाता, किन्तु यज्ञस्थल में पशुओं की बलि चढ़ाने के बाद वैदिक मंत्रों के बल से उन्हें जीवन प्रदान किया जाता था। इस श्लोक में शिपिविष्टाय शब्द व्यवहृत हुआ है। शिपि का अर्थ है “यज्ञाग्नि की ज्वाला।” यदि यज्ञ-अग्नि की ज्वाला में आहुतियाँ डाली जाती हैं, तो भगवान् विष्णु वहाँ ज्वाला के रूप में उपस्थित रहते हैं। इसीलिए विष्णु को शिपिविष्ट कहा गया है।
 
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