श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 13: ध्रुव महाराज के वंशजों का वर्णन  »  श्लोक 37
 
 
श्लोक  4.13.37 
स विप्रानुमतो राजा गृहीत्वाञ्जलिनौदनम् ।
अवघ्राय मुदा युक्त: प्रादात्पत्‍न्या उदारधी: ॥ ३७ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वह; विप्र—ब्राह्मणों की; अनुमत:—अनुमति से; राजा—राजा; गृहीत्वा—लेकर; अञ्जलिना—अंजुली में; ओदनम्— खीर; अवघ्राय—सूँघ कर; मुदा—अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक; युक्त:—सहित; प्रादात्—प्रदान किया; पत्न्यै—अपनी पत्नी को; उदार-धी:—उदार हृदय ।.
 
अनुवाद
 
 राजा अत्यन्त उदार था। उसने पुरोहितों की अनुमति से उस खीर को अपनी अंजुली में ले लिया और फिर सूँघ कर उसका एक भाग अपनी पत्नी को दे दिया।
 
तात्पर्य
 इस प्रसंग में उदारधी: शब्द सार्थक है। राजा की पत्नी सुनीथा यह आशीष ग्रहण करने की पात्र न थी तो भी राजा इतना उदार था कि बिना किसी हिचक के उसने यज्ञपुरुष से प्राप्त वह खीर रूपी प्रसाद अपनी पत्नी को दे दिया। प्रत्युत, सब कुछ भगवान् द्वारा पूर्वयोजित होता है। जैसाकि बाद के श्लोकों में बताया जाएगा, यह घटना राजा के लिए हितकर नहीं हुई। चूँकि राजा अत्यन्त उदार था, अत: इस जगत के प्रति उसकी विरक्ति बढ़ाने के लिए भगवान् ने चाहा कि उसकी रानी से एक क्रूर पुत्र जन्म ले जिससे राजा को गृहत्याग करना ही पड़ेगा। जैसाकि कहा जा चुका है, भगवान् विष्णु कर्मियों की सारी इच्छाएँ पूरी करते हैं, किन्तु भक्त की इच्छा वे एक भिन्न विधि से पूरी करते हैं जिससे कि वह धीरे-धीरे उनके पास पहुँच सके। इसकी पुष्टि भगवद्गीता से भी होती है (ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते)। भगवान् भक्त को अवसर प्रदान करते हैं कि वह आगे प्रगति करता रहे जिससे वह वापस घर की अर्थात् भगवान् के धाम जा सके।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥