जब समस्त प्रचेता धार्मिक अनुष्ठान तथा यज्ञकर्म कर रहे थे और इस प्रकार भगवान् को प्रसन्न करने के लिए पूजा कर रहे थे तो नारद मुनि ने ध्रुव महाराज के दिव्य गुणों का वर्णन किया।
तात्पर्य
नारद मुनि सर्वदा भगवान् की लीलाओं का गुणगान करते रहते हैं। इस श्लोक से प्रकट है कि वे न केवल भगवान् का गुणगान करते रहे हैं, वरन् भगवान् के भक्तों का भी गुणगान करना चाहते हैं। नारद मुनि का एकमात्र जीवन-लक्ष्य है भगवान् की भक्ति का प्रचार। इस हेतु उन्होंने नारद पञ्चरात्र का संकलन किया है, जो भक्तियोग की निर्देशिका है, जिससे भक्त लोग सदा भक्ति करने की विधि सीख सकते हैं तथा भगवान् के लिए अहर्निश यज्ञ करने में तत्पर हो सकते हैं। जैसाकि भगवद्गीता में वर्णित है भगवान् ने सामाजिक जीवन के चार विभाग किये हैं—ये हैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र। नारद पञ्चरात्र में स्पष्ट वर्णन है कि प्रत्येक विभाग किस प्रकार से भगवान् को प्रसन्न करे। भगवद्गीता (१८.४५) में कहा गया है—स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नर:—अपना निर्धारित कर्म सम्पन्न करके मनुष्य भगवान् को प्रसन्न कर सकता है। भागवत में भी (१.२.१३) कहा गया है—स्वनुष्ठितस्य धर्मस्य संसिद्धिर्हरितोषणम्—कर्तव्य की पूर्णता इसी में है कि मनुष्य अपना निर्धारित कार्य करते हुए भगवान् को प्रसन्न रखे। जब प्रचेतागण इस निर्देश के अनुसार यज्ञ कर रहे थे तो नारद इन कार्यों को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए, अत: उन्होंने यज्ञस्थल में ध्रुव महाराज के गुणों का गान करना चाहा।
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