श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 13: ध्रुव महाराज के वंशजों का वर्णन  »  श्लोक 43
 
 
श्लोक  4.13.43 
प्रायेणाभ्यर्चितो देवो येऽप्रजा गृहमेधिन: ।
कदपत्यभृतं दु:खं ये न विन्दन्ति दुर्भरम् ॥ ४३ ॥
 
शब्दार्थ
प्रायेण—सम्भवत:; अभ्यर्चित:—पूजा किया गया; देव:—भगवान्; ये—जो; अप्रजा:—पुत्रहीन; गृह-मेधिन:—गृहस्थ लोग; कद्-अपत्य—बुरे पुत्र से; भृतम्—उत्पन्न; दु:खम्—दुख; ये—जो; न—नहीं; विन्दन्ति—कष्ट भोगते हैं; दुर्भरम्—असहनीय ।.
 
अनुवाद
 
 राजा ने मन में सोचा कि पुत्रहीन व्यक्ति निश्चय ही भाग्यशाली हैं। उन्होंने अवश्य ही पूर्वजन्मों में भगवान् की पूजा की होगी जिससे उन्हें किसी कुपुत्र द्वारा दिया गया असह्य दुख न उठाना पड़े।
 
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥