श्रीमद् भागवतम
 
हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 13: ध्रुव महाराज के वंशजों का वर्णन  »  श्लोक 44
 
 
श्लोक  4.13.44 
यत: पापीयसी कीर्तिरधर्मश्च महान्नृणाम् ।
यतो विरोध: सर्वेषां यत आधिरनन्तक: ॥ ४४ ॥
 
शब्दार्थ
यत:—कुपुत्र के कारण; पापीयसी—पापमय; कीर्ति:—यश; अधर्म:—अधर्म; च—भी; महान्—महान; नृणाम्—मनुष्यों का; यत:—जिससे; विरोध:—झगड़ा; सर्वेषाम्—समस्त लोगों का; यत:—जिससे; आधि:—चिन्ता; अनन्तक:—अपार, असीम ।.
 
अनुवाद
 
 पापी पुत्र के कारण मनुष्य का यश मिट्टी में मिल जाता है। उसके अधार्मिक कृत्यों से घर में अधर्म और सबों में झगड़ा फैलता है। इससे केवल अन्तहीन तनाव ही उत्पन्न होता है।
 
तात्पर्य
 कहा जाता है कि विवाहित दम्पति के पुत्र होना आवश्यक है, अन्यथा उनका पारिवारिक जीवन निरर्थक रहता है। किन्तु उत्तम गुणों से रहित पुत्र अंधी आँख के समान होता है। अंधी आँख देखने के लिए कोई काम नहीं आती, इससे केवल असह्य वेदना होती है। अत: ऐसे कुपुत्र को पाकर राजा अपने को अत्यन्त अभागा समझने लगा।
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
About Us | Terms & Conditions
Privacy Policy | Refund Policy
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥