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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 13: ध्रुव महाराज के वंशजों का वर्णन  »  श्लोक 47
 
 
श्लोक  4.13.47 
एवं स निर्विण्णमना नृपो गृहा-
न्निशीथ उत्थाय महोदयोदयात् ।
अलब्धनिद्रोऽनुपलक्षितो नृभि-
र्हित्वा गतो वेनसुवं प्रसुप्ताम् ॥ ४७ ॥
 
शब्दार्थ
एवम्—इस प्रकार; स:—वह; निर्विण्ण-मना:—उदास मन; नृप:—राजा अंग; गृहात्—घर से; निशीथे—अर्द्धरात्रि में; उत्थाय—उठकर; महा-उदय-उदयात्—महापुरुषों के आशीर्वाद से ऐश्वर्ययुक्त; अलब्ध-निद्र:—बिना नींद के; अनुपलक्षित:— बिना दिखे; नृभि:—मनुष्यों के द्वारा; हित्वा—त्याग कर; गत:—चला गया; वेन-सुवम्—वेन की माता को; प्रसुप्ताम्—गहरी निद्रा में मग्न ।.
 
अनुवाद
 
 इस प्रकार से सोचते हुए राजा अंग को रात भर नींद नहीं आई। वह गृहस्थ जीवन से पूर्णत: उदास हो गया। अत: एक दिन अर्धरात्रि में वह अपने बिस्तर से उठा और वेन की माता (अपनी पत्नी) को गहरी निद्रा में सोते हुए छोडक़र चला गया। उसने अपने महान् ऐश्वर्यमय राज्य का मोह त्याग दिया और चुपके से अपना घर तथा ऐश्वर्य छोडक़र जंगल की ओर चला गया।
 
तात्पर्य
 इस श्लोक में आगत महोदयोदयात् शब्द सूचित करता है कि महान् पुरुषों के आशीर्वाद से मनुष्य भौतिक ऐश्वर्य प्राप्त कर सकता है, किन्तु जब वह भौतिक सम्पत्ति के प्रति अपनी आसक्ति को छोड़ता है, तो इसे महापुरुषों के आशीर्वाद से भी बड़ा मानना चाहिए। राजा के लिए अपना ऐश्वर्यमय राज्य तथा तरुणी आज्ञाकारिणी पत्नी को त्याग पाना आसान नहीं था, किन्तु उसे भगवान् की कृपा ही कहेंगे कि वह आसक्ति से रहित होकर बिना किसी के देखे जंगल को चला गया। ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जब महापुरुष अर्धरात्रि में अपनी पत्नी तथा धन त्याग कर घर छोड़ देते हैं।
 
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