श्रीमद् भागवतम
 
हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 13: ध्रुव महाराज के वंशजों का वर्णन  »  श्लोक 48
 
 
श्लोक  4.13.48 
विज्ञाय निर्विद्य गतं पतिं प्रजा:
पुरोहितामात्यसुहृद्गणादय: ।
विचिक्युरुर्व्यामतिशोककातरा
यथा निगूढं पुरुषं कुयोगिन: ॥ ४८ ॥
 
शब्दार्थ
विज्ञाय—जानकर; निर्विद्य—उदास; गतम्—चला गया; पतिम्—राजा; प्रजा:—समस्त नागरिक; पुरोहित—पुरोहित; आमात्य—मंत्री; सुहृत्—मित्र; गण-आदय:—तथा सामान्यजन; विचिक्यु:—खोजने लगे; उर्व्याम्—पृथ्वी पर; अति-शोक- कातरा:—अत्यन्त दुखी होकर; यथा—जिस प्रकार; निगूढम्—छिपा हुआ; पुरुषम्—परमात्मा को; कु-योगिन:—अनुभवहीन योगी ।.
 
अनुवाद
 
 जब यह पता चला कि राजा ने उदास होकर गृहत्याग कर दिया है, तो समस्त नागरिक, पुरोहित, मंत्री, मित्र तथा सामान्यजन अत्यन्त दुखी हुए। वे सर्वत्र उसकी खोज करने लगे जैसे कोई अनुभवहीन योगी अपने भीतर परमात्मा की खोज करता है।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर अनुभवहीन योगी द्वारा अपने भीतर परमात्मा की खोज करने का उदाहरण अत्यन्त शिक्षाप्रद है। परम सत्य को तीन प्रकार से जाना जाता है—निर्गुण ब्रह्म, अन्तर्यामी परमात्मा तथा भगवान्। ऐसे अनुभवहीन योगी (कुयोगिन:) चिन्तन द्वारा निर्गुण ब्रह्म तक पहुँच पाते हैं, किन्तु प्रत्येक जीवात्मा में स्थित परमात्मा को नहीं ढूँढ पाते। जब राजा ने घर छोड़ दिया तो यह निश्चित था कि वह अन्यत्र कहीं ठहरा होगा, किन्तु नागरिकों को पता न था कि उसकी खोज कैसे की जाये, इसलिए वे अनुभवहीन योगियों की तरह क्षुब्ध थे।
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
About Us | Terms & Conditions
Privacy Policy | Refund Policy
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥