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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 13: ध्रुव महाराज के वंशजों का वर्णन  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  4.13.7 
स जन्मनोपशान्तात्मा नि:सङ्ग: समदर्शन: ।
ददर्श लोके विततमात्मानं लोकमात्मनि ॥ ७ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वह, उत्कल; जन्मना—अपने जन्म से ही; उपशान्त—अत्यन्त संतुष्ट, संतोषी; आत्मा—जीव; नि:सङ्ग:—आसक्ति-रहित; सम-दर्शन:—समदर्शी; ददर्श—देखा; लोके—संसार में; विततम्—फैला; आत्मानम्—परमात्मा; लोकम्—सारा संसार; आत्मनि—परमात्मा में ।.
 
अनुवाद
 
 उत्कल जन्म से ही पूर्णतया सन्तुष्ट था तथा संसार से अनासक्त था। वह समदर्शी था, क्योंकि वह प्रत्येक वस्तु को परमात्मा में और प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में परमात्मा को स्थित देखता था।
 
तात्पर्य
 महाराज ध्रुव के पुत्र उत्कल के लक्षण तथा गुण महाभागवत जैसे हैं। जैसाकि भगवद्गीता (६.३०) में कहा गया है—यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति—सिद्ध भक्त भगवान् को सर्वत्र देखता है और उसे हर वस्तु भगवान् में स्थित दिखती है। भगवद्गीता (९.४) में इसकी भी पुष्टि हुई है—मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना—भगवान् कृष्ण सारे ब्रह्माण्ड में अपने निर्गुण रूप में व्याप्त हैं। प्रत्येक वस्तु उन्हीं पर आश्रित है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वे ही हर वस्तु हैं। सिद्ध महाभागवत भक्त इस प्रकार देखता है—वह एक ही परमात्मा को हर एक के हृदय में स्थित देखता है, उसमें जीवात्माओं के भौतिक रूपों का कोई भेदभाव नहीं रह जाता। वह हर एक को भगवान् के अंश- रूप में देखता है। सर्वत्र ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव करनेवाला महाभागवत ईश्वर की दृष्टि से कभी ओझल नहीं होता और न परमेश्वर ही उसकी दृष्टि से ओझल होता है। यह तभी सम्भव है जब कोई ईश्वर के प्रेम में बहुत आगे निकल गया हो।
 
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