ये दोनों श्लोक भगवद्गीता के (१८.५४) निम्नलिखित श्लोक की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं— ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति।
सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ॥
“दिव्य अवस्था में स्थित पुरुष को तत्काल परब्रह्म की अनुभूति होती है और वह पूर्णरूपेण आन्दमय हो जाता है, वह न शोक करता है और न किसी वस्तु की पाने की इच्छा ही। वह सब प्राणियों में समभाव रखता है। इस अवस्था में उसे मेरे शुद्ध भक्तियोग की प्राप्ति होती है।” भगवान् चैतन्य के शिक्षाष्टक के प्रारम्भ में दिये हुए प्रथम श्लोक से भी इसकी व्याख्या हो जाती है। चेतो दर्पणमार्जनं भवमहादावाग्निनिर्वापणं।
श्रेय: कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम् ॥
भक्तियोग-पद्धति सर्वोच्च योग-पद्धति है और यह-पद्धति भगवान् के पवित्र नाम के जप की ही सर्वोपरि भक्ति-कार्य है। नाम जप से भौतिक जगत से मुक्ति अथवा निर्वाण प्राप्त हो सकता है और इस प्रकार आध्यात्मिक जगत के आनन्दमय जीवन में वृद्धि होती है, जैसाकि भगवान् चैतन्य ने कहा है (आनन्दाम्बुधि-वर्धनम्)। जब मनुष्य इस पद पर स्थित होता है, तो उसकी रुचि भौतिक ऐश्वर्य या राजसिंहासन तथा सम्पूर्ण लोक के ऊपर प्रभुत्व जताने में नहीं रह जाती। यह स्थिति विरक्तिरन्यत्र स्यात् कहलाती है। यह भक्तियोग का फल है।
मनुष्य जितना ही भक्ति में आगे बढ़ता है, वह उतना ही भौतिक ऐश्वर्य तथा भौतिक कार्यों से विरक्त होता जाता है। यह आनन्दपूर्ण आत्म-प्रकृति है। भगवद्गीता (२.५९) में भी इसी का वर्णन है—परं दृष्ट्वा निवर्तते—आध्यात्मिक स्तर पर श्रेष्ठ, आनन्दमय जीवन का स्वाद चख लेने पर मनुष्य भौतिक सुख में भाग लेना छोड़ देता है। आत्मज्ञान में वृद्धि के साथ ही सभी भौतिक कामनाएँ जलकर राख हो जाती हैं, क्योंकि आत्मज्ञान अग्नि के समान होता है। योग की सिद्धि तभी सम्भव है जब मनुष्य भक्ति करता हुआ भगवान् के सतत सम्पर्क में रहे। भक्त तो पग-पग पर परम पुरुष का स्मरण करता चलता है। प्रत्येक बद्ध जीवात्मा अपने पूर्वजन्म के फलों से भरा रहता है, किन्तु यदि वह केवल भक्ति करे तो ये सभी गन्दी वस्तुएँ तुरन्त ही जलकर राख हो जाती हैं। नारद पंचरात्र में इसका वर्णन हुआ है—सर्वोपाधिविनिर्मुक्तंतत्परत्वेन निर्मलम्।