श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 14: राजा वेन की कथा  »  श्लोक 11
 
 
श्लोक  4.14.11 
निरूपित: प्रजापाल: स जिघांसति वै प्रजा: ।
तथापि सान्‍त्वयेमामुं नास्मांस्तत्पातकं स्पृशेत् ॥ ११ ॥
 
शब्दार्थ
निरूपित:—नियुक्त; प्रजा-पाल:—राजा; स:—वह; जिघांसति—क्षति पहुँचाना चाहता है; वै—निश्चय ही; प्रजा:—नागरिक; तथा अपि—तो भी; सान्त्वयेम—हमें समझाना चाहिए; अमुम्—उसको; न—नहीं; अस्मान्—हमको; तत्—उसका; पातकम्—पापमय फल; स्पृशेत्—छू सकेंगे ।.
 
अनुवाद
 
 हमने इस वेन को नागरिकों की सुरक्षा के हेतु नियुक्त किया था, किन्तु अब वह उनका शत्रु बन चुका है। इन सब न्यूनताओं के होते हुए भी, हमें चाहिए कि उसे तुरन्त समझाने का प्रयत्न करें। ऐसा करने से हमें उसके पाप स्पर्श नहीं कर सकेंगे।
 
तात्पर्य
 ऋषियों ने वेन को राजा बनाने के लिए चुना, किन्तु वह उत्पाती सिद्ध हुआ। अत: ऋषियों को भय था कि वे पापमय कर्मों के फल के आगे न ही जायें। कर्म का नियम मनुष्य को उत्पाती पुरुष की संगति करने से वर्जित करता है। वेन को राजसिंहासन पर बैठाने के लिए चुन कर मुनियों ने निश्चित रूप से उसका साथ दिया था। अन्तत: राजा वेन इतना उत्पाती बन गया कि ऋषियों को भय होने लगा कि वे उसके कार्यों से कलुषित न हो जायँ। अत: उसके विरुद्ध कोई कार्यवाही करने के पूर्व वे उसे मनाना तथा उसकी भूल को सुधारना चाह रहे थे जिससे वह अपनी दुष्टता त्याग दे।
 
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