श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 14: राजा वेन की कथा  »  श्लोक 12
 
 
श्लोक  4.14.12 
तद्विद्वद्‌भिरसद्‍वृत्तो वेनोऽस्माभि: कृतो नृप: ।
सान्त्वितो यदि नो वाचं न ग्रहीष्यत्यधर्मकृत् ।
लोकधिक्कारसन्दग्धं दहिष्याम: स्वतेजसा ॥ १२ ॥
 
शब्दार्थ
तत्—उसकी उत्पाती प्रकृति; विद्वद्भि:—परिचित; असत्-वृत्त:—अपवित्र; वेन:—वेन; अस्माभि:—हमारे द्वारा; कृत:—बनाया गया; नृप:—राजा; सान्त्वित:—शान्त किये जाने या समझाने पर; यदि—यदि; न:—हमारा; वाचम्—शब्द; न—नहीं; ग्रहीष्यति—वह स्वीकार करेगा; अधर्म-कृत्—सर्वाधिक दुष्ट; लोक-धिक्-कार—सार्वजनिक निन्दा; सन्दग्धम्—भस्म किया हुआ; दहिष्याम:—जला देंगे; स्व-तेजसा—अपने तेज से ।.
 
अनुवाद
 
 संत सदृश मुनि लोगों ने आगे सोचा : निस्सन्देह हम उसके दुष्ट स्वभाव से भली भाँति परिचित हैं, तो भी हमीं ने वेन को राजसिंहासन पर बैठाया है। यदि हम उसे अपनी सलाह मानने के लिए राजी नहीं कर लेते तो जनता उसको दुत्कारेगी और हम भी उनका साथ देंगे। इस प्रकार हम अपने तेज से उसे भस्म कर डालेंगे।
 
तात्पर्य
 साधु पुरुषों की रुचि राजनीतिक मामलों में भले न हो, किन्तु वे जन-सामान्य के कल्याण के विषय में सदैव सोचते रहते हैं। फलस्वरूप कभी-कभी उन्हें भी राजनीतिक क्षेत्र में उतर कर दिग्भ्रमित सरकार को या राजा को रास्ते पर लाने के लिए कदम उठाने पड़ते हैं। किन्तु कलियुग में साधु पुरुष पहले की भाँति शक्तिमान नहीं रह गये हैं। जहाँ वे अपने आध्यात्मिक तेज से पापी मनुष्य को भस्म करने में समर्थ रहते थे, वहीं अब कलियुग के प्रभाव से साधु पुरुषों में ऐसी शक्ति नहीं रही। ब्राह्मणों में तो इतनी भी शक्ति शेष नहीं रही है कि वे पशुमेध यज्ञ कर सकें। जिसमें पशुओं को नवीन जीवन लाभ के लिए अग्नि में धकेला जाता था। ऐसी परिस्थिति में, साधु पुरुषों को राजनीति में भाग न लेकर हरे कृष्ण महामंत्र के जप में तल्लीन रहना चाहिए। भगवान् चैतन्य की कृपा से केवल हरे कृष्ण महामंत्र के जप से ही जनता को बिना किसी राजनीतिक झमेले के सारा लाभ प्राप्त हो सकेगा।
 
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