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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 14: राजा वेन की कथा  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  4.14.21 
तं सर्वलोकामरयज्ञसङ्ग्रहं
त्रयीमयं द्रव्यमयं तपोमयम् ।
यज्ञैर्विचित्रैर्यजतो भवाय ते
राजन् स्वदेशाननुरोद्धुमर्हसि ॥ २१ ॥
 
शब्दार्थ
तम्—उसको; सर्व-लोक—समस्त लोकों में; अमर—प्रमुख देवों सहित; यज्ञ—यज्ञ; सङ्ग्रहम्—जो स्वीकार करते हैं; त्रयी- मयम्—तीन वेदों का सार; द्रव्य-मयम्—समस्त सामग्री का स्वामी; तप:-मयम्—समस्त तपस्या का उद्देश; यज्ञै:—यज्ञ के द्वारा; विचित्रै:—विभिन्न; यजत:—पूजा करते हुए; भवाय—उन्नति के लिए; ते—तुम्हारी; राजन्—हे राजा; स्व-देशान्—अपने देशवासियों को; अनुरोद्धुम्—निर्देश देना; अर्हसि—तुम्हें चाहिए ।.
 
अनुवाद
 
 हे राजन्, भगवान् प्रमुख अधिष्ठाता देवों सहित समस्त लोकों में समस्त यज्ञों के फल के भोक्ता हैं। परमेश्वर तीनों वेदों के सार रूप हैं, वे हर वस्तु के स्वामी हैं और सारी तपस्या के चरम लक्ष्य हैं। अत: आपके देशवासियों को आपकी उन्नति के लिए विविध प्रकार के यज्ञ करने चाहिए। दर असल आपको चाहिए कि आप उन्हें यज्ञ करने के लिए निर्देशित करें।
 
 
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