श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 14: राजा वेन की कथा  »  श्लोक 23
 
 
श्लोक  4.14.23 
वेन उवाच
बालिशा बत यूयं वा अधर्मे धर्ममानिन: ।
ये वृत्तिदं पतिं हित्वा जारं पतिमुपासते ॥ २३ ॥
 
शब्दार्थ
वेन:—राजा वेन ने; उवाच—उत्तर दिया; बालिशा:—बच्चों जैसा; बत—ओह; यूयम्—तुम सब; वा—निस्सन्देह; अधर्मे— अधार्मिक नियमों में; धर्म-मानिन:—धर्म मानते हुए; ये—तुम सब जो; वृत्तिदम्—पालन करनेवाले; पतिम्—पति को; हित्वा—त्याग कर; जारम्—परपति को; पतिम्—पति को; उपासते—पूजा करते हैं ।.
 
अनुवाद
 
 राजा वेन ने उत्तर दिया : तुम तनिक भी अनुभवी नहीं हो। यह अत्यन्त दुख की बात है कि तुम लोग जो कुछ करते रहे हो वह धार्मिक नहीं है, किन्तु तुम लोग उसे धार्मिक मान रहे हो। दर असल, तुम लोग अपने पालनकर्ता वास्तविक पति को त्याग रहे हो और पूजा करने के लिए किसी जार (परपति) की तलाश में हो।
 
तात्पर्य
 राजा वेन इतना मूर्ख था कि उसने मुनियों को बच्चों के समान अनुभवहीन कह डाला। दूसरे शब्दों में, वह उनको सही ज्ञान न होने का दोषी बता रहा था। इस प्रकार उसने उनके उपदेश को अस्वीकार करके उनके विरुद्ध दोषारोपण किया कि वे उस स्त्री के समान हैं, जो अपने पालनकर्ता पति की परवाह न करके जार पति को प्रसन्न रखती है जो उसका पालन नहीं करता है। इस उपमा का मन्तव्य स्पष्ट है। क्षत्रियों का कर्तव्य है कि वे ब्राह्मणों को अनेक प्रकार के धार्मिक कार्यों में लगाएँ और राजा को ब्राह्मणों का पालक माना जाता है। यदि ब्राह्मण राजा को न पूज कर अन्य देवताओं के पास जाँय तो वे उतने ही दूषित हैं जितनी कि कुलटा स्त्री।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥