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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 14: राजा वेन की कथा  »  श्लोक 28
 
 
श्लोक  4.14.28 
तस्मान्मां कर्मभिर्विप्रा यजध्वं गतमत्सरा: ।
बलिं च मह्यं हरत मत्तोऽन्य: कोऽग्रभुक्पुमान् ॥ २८ ॥
 
शब्दार्थ
तस्मात्—इस कारण से; माम्—मुझको; कर्मभि:—अनुष्ठान कार्यों के द्वारा; विप्रा:—हे ब्राह्मणों; यजध्वम्—पूजा करो; गत— बिना; मत्सरा:—ईर्ष्या किये; बलिम्—पूजा की सामग्री; —भी; मह्यम्—मुझको; हरत—लाओ; मत्त:—मेरी अपेक्षा; अन्य:—दूसरा; क:—कौन (है); अग्र-भुक्—प्रथम आहुति का भोक्ता; पुमान्—पुरुष ।.
 
अनुवाद
 
 राजा वेन ने आगे कहा : इसलिए, हे ब्राह्मणो, तुम मेरे प्रति ईर्ष्या त्याग कर अपने अनुष्ठान कार्यों द्वारा मेरी पूजा करो और समस्त पूजा-सामग्री मुझ पर ही चढ़ाओ। यदि तुम लोग भी बुद्धिमान होगे, तो समझ सकोगे कि मुझसे श्रेष्ठ ऐसा कोई पुरुष नहीं जो समस्त यज्ञों की प्रथम आहुतियों को ग्रहण कर सके।
 
तात्पर्य
 जैसाकि श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में कहा है कि उनसे बड़ा सत्य अन्य कुछ नहीं। राजा वेन भगवान् का अनुकरण कर रहा था और मिथ्या अहंकारवश कह भी रहा था कि वह परमेश्वर है। ये सब आसुरी पुरुषों के लक्षण हैं।
 
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